The following story is from the book “Kaam and Raam” by ” Mr. Devraj Pathania”
श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक अक्सर मेरी कहानियों के सूत्रधार रहे हैं सनातन धर्म में उपासना की सगुण साकार और निर्गुण निराकार पद्धति के समर्थक रहे है, विभिन्न विद्वानों ने इसके पक्ष और विपक्ष में तरह-तरह के मत व्यक्त किए है गीता का बारहवां अध्याय भक्ति को समर्पित अध्याय है। इस अध्याय के पूर्व दस्वी और ग्यारहवें अध्याय विभूति-योग के नाम से जाना जाता है।
स्वयं भगवान के श्रीमुख से परमात्मा के सर्वव्यापक स्वरूप का वर्णन अर्जुन सुन भी चुका है और अर्जुन के अनुरोध पर ही भगवान ने उसे अपना विश्वरूप दिखा भीदिया था विश्वरूप को अर्जुन और फिर संजय द्वारा सारा विश्व जान चुका है।
ग्यारहवें अध्याय के इकतीसवें श्लोक में अत्यन्त भयभीत अर्जुन ने पूछा था कि मुझे बतलाइए कि इस उग्र रूप वाले आप कौन हो? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार हो। आप प्रसन्न होइए। आदिपुरुष आपको मैं विशेष रूप से जानना चाहता हूँ क्योंकि में आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता। गीता 11/31
श्री भगवान बोले – मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ है। इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा हैं वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात् तेरे युद्ध न करने पर भी इन सबका नाश हो जाएगा। गीता 11/32
कोविड-19 नामक महामारी से पूरे विश्व में लगने वाले शवों के ढेर के इस काल में यह श्लोक पूरी तरह से लागू है।
हे अर्जुन! मनुष्य लोक में इस प्रकार विश्वरूप वाला में न वेद और यज्ञों के अध्ययन से न दान से, न क्रियाओं से और न उग्र तपों से ही तेरे अतिरिक्त दुसरों के द्वारा देखा जा सकता है। गीता 11/48
आगे चलकर श्री भगवान ने भयभीत अर्जुन की प्रार्थना पर अपना सौम्य चतुर्भुज रूप दिखलाया।
गीता 11/50 श्लोक में संजय जो कि दिव्य दृष्टि द्वारा वर्णन कर रहे थे बोले – वासुदेव भगवान ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर से वैसे ही अपना चतुर्भुज रूप दिखलाया और फिर महात्मा श्रीकृष्ण ने सौम्य मूर्ति होकर इस भयभीत अर्जुन को धीरज दिया।
गीता 11/52 श्लोक में श्री भगवान बोले मेरा जो चतुर्भुज रूप तुमने देखा है. यह सुदुर्दश है अर्थात् इसके दर्शन बड़े ही दुर्लभ है। देवता भी सदा इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं।
गीता 11/53वें स्लोक में श्रीकृष्ण बोले – हे अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे लिए सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को करने वाला है. मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्ति हेितहै और सम्पूर्ण भूत प्राणियों में वैरभाव से रहित है। वह अनन्य भक्ति युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।
इन चुनिंदा श्लोक को उद्मृत करने का उद्देश्य यही है कि भगवान के अवतार काल में भी उनके ईश्वरीय रूप के दर्शन दुर्लभ है तो इस कलियुग में कैसे सम्भव है।
परन्तु जहाँ भक्ति करने के लिए प्रभु का सगुण साकार अथवा निर्गुण निराकार कौन-सा स्वरूप उपयुक्त है। इसका निर्णय भी अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से करवाना उचित समझा ।
गीता के अध्याय बारहयां श्लोक संख्या एक में अर्जुन बोले जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रह कर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं – उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगदेता कौन है? गीता 12/1
श्रीभगवान बोले मुझ में मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुण रूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझ को योगियों में अति उत्तम योगी मान्य है। गीता 12/2
परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य अचल निराकार, अविनाशी, सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भाजते है, वे सम्पूर्ण भूतों (मनुष्यों) के हित में रत और सब में समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं। श्लोक संख्या 3 और 4
उन सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्त वाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है; क्योंकि देहाभिमाने (स्वयं मनुष्य शरीर में स्थित) द्वारा अव्यक्त विषयक गति दुखपूर्वक प्राप्त की जाती है। परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके मुझ सगुण रूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति योग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं। गीता 12/5-6
हे अर्जुन! उन मुझ में चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्र से उदार करने वाला होता हूँ। गीता 12/7
मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा इसके उपरान्त मुझ में ही निवास करेगा. इसमें कुछ भी संशय नहीं है गीता 12/8
पाठकों, संसार में जितने भी ईश्वर को प्राप्त करने वाले प्रभु प्रिय साधक है उनके सामने ये सगुण-साकार अथवा निर्गुण-निराकार का प्रश्न उठना स्वाभाविक है। अर्जुन ने इसलिए स्वयं भगवान से प्रश्न करके उत्तर पा लिया। संसार में सभी सगुण साकार के साधक अपने सम्मुख भगवान के श्री विग्रह का रूप जैसे मूर्ति अथवा चित्रपट इत्यादि को अपने मन में उतारने का प्रयत् करते हैं।किन्तु चंचल मन नेत्र बन्द करके उसी स्वरूप को मन में धारणा नहीं कर पाते।
और निर्गुण निराकार के उपासक परमात्मा के किसी भी नाम को जो कि उनके अनुसार श्रेष्ठ हो अथवा किसी गुरु द्वारा दिया गया हो। उसका बार-बार मन ही मन उच्चारण करके ध्यानस्थ हो जाना ही प्रभु भक्ति मानते हैं।
अधिकतर साधकों का अनुभव है कि बार-बार कोशिश करने के उपरान्त भी ऐसा नहीं कर पाते, इसका उपाय भगवान श्रीकृष्ण ने अगले श्लोक में दिया है। यदि तू मन को मुझ में अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्यास रूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने के लिए इच्छा कर। गीता 12/9
इस अभ्यास करने के प्रभु के आदेश का संदर्भ गीता में कई बार आया है। इसका वर्णन भी आवश्यक है, किन्तु विषय विस्तार होने से इसे अभी यहीं रोका जा रहा है।
उपरोक्त सभी विषयों को एक कथा द्वारा समझने का प्रयास कीजिए।
राजस्थान के नाथद्वारा इलाके का विवरण है मुख्य कस्बे से हटकर, खुले इलाके में एक कृष्ण भगवान का मंदिर है मन्दिर में स्थापित श्रीकृष्ण के चक्रधारी रूप
की एक सुन्दर मूर्ति है। किसी सिद्ध मूर्तिकार द्वारा निर्मित यह सफेद संगमरमर की भव्य मूर्ति अत्यन्त दर्शनीय है। इसी कारण हजारों की संख्या में प्रभु भक्त इस मन्दिर की ओर खिंचे चले आते हैं। भव्य मूर्ति के आकर्षक रूप के कारण कई चित्र बनाने वाले चित्रकार भी यहाँ आते रहते हैं जो कि अपनी कला द्वारा इसी मूर्ति के चित्र बनाते हैं और मन्दिर में भेंट चढ़ा कर चले जाते हैं। इसी कस्बे के रहने वाली थी हमारी अछूत देवी। पति के जिन्दा रहते उसने दो पुत्रों को जन्म दिया, उनका लालन-पालन करके बड़ा किया, उनके विवाह किए। अपनी-अपनी गृहस्थी में मस्त उसकी सन्तान माता-पिता से बेपरवाह हो गई वक्त कब एक-सा रहता है। पति ब्रह्मलीन हो गए. रह गई अछूत देवी, अकेली इस संसार रूपी बीहड़ वन में। कई दिनों तक अकेलापन झेलने के उपरान्त अछूत देवी विक्षिप्त हो
गई।
वृद्धावस्था वैसे भी मनुष्य जीवन का सबसे कठिन समय होता है। दूसरों पर आश्रित होना वृद्धों की मजबूरी होती है।
आदि शंकराचार्य ने अपनी प्रसिद्ध लेख श्रृंखला भजगोविंदम में मनुष्य की वृद्धावस्था का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है “मनुष्य की क्षमता घटने पर सभी उसे छोड़ देते हैं। “जीव के रूप में मनुष्य मूलतः स्वार्थी होता है। साधारणतया वह कुछ नहीं देगा, जब तक कुछ पाने की आशा न हो। कुछ नहीं के लिए कुछ नहीं।” आदि शंकराचार्य का कहना है कि कोई भी मनुष्य तभी तक दूसरों प्रिय हो सकता है, जब तक उसमें कमाने और बचाने की शक्ति बनी है। जब मनुष्य की क्षमताएं घट जाती है उसका शरीर वृद्ध और निर्बल हो जाता है, तब उसके सभी मित्र और आश्रित उसे छोड़ देते हैं क्योंकि उससे उनका मतलब नहीं निकलता। संसार की यही रीत है।
भागवत महापुराण के तृतीय स्वामी भगवान के अवतार कपिल जी ने तीसवे आयाय के लोक संख्या 13 में वृद्धावस्था की दयनीय स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है:-
“इसे अपने पालन-पोषण में असमर्थ देखकर स्त्री-पुत्रादि इसका पहले के सामान आदर नहीं करते जैसे कृपण किसान बुढ़े बैल की उपेक्षा कर देते हैं ।।13।। फिर भी उसे वैराग्य नही होता। जिन्हें उसने स्वयं पाला था वहीं अब उसका पालन करते हैं । वृद्धावस्था के कारण इसका रूप बिगड़ जाता है शरीर रोगी हो जाता है, अग्नि मंद पड़ जाती है भोजन और पुरुषार्थ दोनों ही कम हो जाते हैं । वह मरणोन्मुख होकर घर में पड़ा रहता है और कुत्ते की भांति स्त्री पुत्र आदि के अपमान पूर्वक दिए हुए टुकड़े खाकर जीवन निर्वहन करता है । 4- 1511 यद्यपि अपवाद भी है कुछ मातृ देवो भव: पितृ देवो भव: का पालन करते है। किन्तु अधिकांश जीवन ऐसा ही है। मृत्यु का समय निकट आने पर वायु के उत्क्रमण से इसकी पुतलियां चढ़ जाती है श्वास-प्रश्वास की नलिका कफ से रुक जाती है खान स्नेह और सांस लेने में भी इसे बहुत कष्ट होता है तथा कफ बढ़ जाने के कारण कंठ में घुरघुराहट होने लगती है यह अपने शोक आतुर बंधु बंधुओं से गिरा पड़ा रहता है और मृत्यु पाश के वशीभूत हो जाने से उनके बुलाने पर भी नहीं बोल सकता।17।।
विधवा जीवन जीते-जीतेअछूत देवी टूट गई थी। उसकी आस सिर्फ भगवान कृष्ण पर अभी भी अडोल थी उनके पति घर में गीता का पाठ करते थे और जहाँ कहीं सत्संग होता था वह पत्नी सहित शामिल होते थे। वहीं से उसे कृष्ण भगवान की भक्ति की लौ लग गई थी। संसार की यही रीत है कि आस्तिक दुख के समय अपने हाथ ऊपर की और उठा कर विधाता से दुख निवारण की याचना करता है। देवी ने विधवा होने के पश्चात् अपना मंगलसूत्र उतार कर एक कपड़े में कर रख दिया था. ऐसे समय उसको उसकी याद आई। मंगलसूत्र में सोने के कुछ टुकडे लगे थे। एक सुनार के पास जाकर उसने उसके सामने रख दिए। सुनार ने उसका मोल करके कुछ रुपये उसे दे दिये। श्री कृष्ण मन्दिर के आसपास काफी खुला इलाका था अतः देवी ने उसी इलाके में एक कुटिया अपने लिए बना ली। पानी भरने के लिए और खाना बनाने के लिए आवश्यक सामान व बरतन उसने खरीद लिये। मन्दिर पास ही एक कुआं था और रस्सी और बाल्टी की व्यवस्था भी थी। दो तीन तगारिया उसने खरीद ली थीं। इनमें वो कस्बे से गाय भैसों का गोबर भर कर लाने लगी इसी से वो उपले बनाकर अपनी कुटिया के आसपास सुखा लेती थी। तैयार उपले कस्बे में बेच कर कुछ रकम की व्यवस्था हो जाता। उसी से उसे भोजन की जरूरत पूरी हो जाती थी।
जिसको भगवान में लौ लग जाती है उसे फिर वह दिन-रात उठते बैठते याद करने लग जाता है ।उसका नाम ले लेकर बार-बार उसे याद करने लग जाता है ।अछूत देवी को उपले बनाने और उसे सुखाने और सूखे उपले इकट्ठे करके कस्बे में बेचने के अलावा और कोई काम तो था नहीं।वह। हर समय वह भगवान कृष्ण को याद करते-करते काम किया करती थी बड़े-बड़े योगी जिस नाम स्वरूप का अभ्यास करने में अपनी पूरी तन्मयता के साथ प्रभु से जुड़ने का प्रयास करते हैं। अछूत देवी उस नाम स्मरण को अनायास ही कर लेती थी प्रतिदिन प्रातः काल वह अपनी दैनिक दिनचर्या से अवकाश लेकर एक लोटे में थोड़ा जल लेकर वह उस तुलसी के पौधे को जल अर्पित करती थी जो उसने अपनी कुटिया के पास ही लगा रखा था ।उसके उपरांत उसी लोटे में जल भरकर और उसमें इस तुलसीदल डालकर वह मंदिर की ओर जाती थी ।
घोर छुआछूत के इस युग में शूद्र होने के कारण उस देवी को इस कथा में अछूत देवी का शीर्षक दिया गया है। उसका मंदिर में प्रवेश वर्जित था । उस देवी की बड़ी इच्छा थी कि वह मंदिर के अंदर स्थित भगवान कृष्ण के श्री विग्रह का दर्शन करें जो उसके ख्यालों में दिन रात ही बसते थे। मंदिर की सीढ़ियों से कुछ दूर ही वह मंदिर के दरवाजे से अंदर झांकने का प्रयास करती थी किंतु बाहर से बड़ी कोशिश के उपरांत भी उसको श्री विग्रह के चरणों की थोड़ी सी झलक ही प्राप्त हो पाती थी ।बाहर से खड़े खड़े देवी अपने आराध्य को जल अर्पित कर देती थी और नेत्र बंद करके कल्पना करती थी कि चरणों के ऊपर श्री कृष्ण का रूप कैसा सुंदर होगा जिस स्वरुप ध्यान का अभ्यास बड़े-बड़े योगी नहीं कर पाते थे वह देवी अपनी कल्पना शक्ति के द्वारा कर लेती थी। पाठको भगवान का एक नियम है कि जो श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय और ग्यारवें श्लोक में प्रकट किया है। श्लोक निम्न प्रकार ह
” हे अर्जुन जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूं क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं 411 एक अन्य व्याख्या का श्री रामसुखदास जी ने भगवत गीता के श्लोकों के भावार्थ को निम्न प्रकार से किया है :-
“हे पृथा नंदन जो भक्त मेरी जिस प्रकार से शरण लेते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूं क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं।”
इस उदाहरण में अछूत देवी श्री कृष्ण के बिना व्याकुल रहती थी तो वह भी उसके बिना व्याकुल रहते थे
श्रीकृष्ण के इस मंदिर का नियम था कि प्रातः काल पुजारी द्वारा भगवान के विग्रह का पद ग्रहण किया जाता था इस जल को पुजारी बात में चरणामृत के रूप में लोटे में एकत्रित करके मंदिर में आने वाले भक्तों को चरणामृत के रूप में वितरित करता था जिसे सभी भक्त सादर सहित ग्रहण करते थे नजदीकी कस्बे से कई प्रकार के पकवान भी आते थे जिन्हें पुजारी द्वारा पूजा अर्चना के उपरांत भगवान को भोग लगाने के पश्चात मंदिर में दर्शनों के लिए आए भक्तों को प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता था एक चमत्कार रोज देखता महसूस करता है यह था कि पद के पूर्व महसूस करता था कि श्री विग्रह आता है और एक तुलसी दल था जो कि पुजारी द्वारा भगवान को भोग लगाने के साथ ही गायब हो जाता था। पुजारी इसे सामान्य सी बात मान कर अपना कार्य करता रहता था।
एक दिन मन्दिर में एक विशेष सत्संग आयोजन होने वाला था। एक सिद्ध सन्त पधारे तो मन्दिर की सीढ़ियों के पास अछूत देवी को वहाँ मन्दिर की ओर टकटकी बाँधे देख लिया. जिज्ञासावश उन्होंने उस देवी से पूछ लिया कि आप कौन हैं और यहाँ से क्या देख रही है?
देवी ने उत्तर दिया कि मैं एक विधवा हूँ और शूद्र जाति से होने के कारण, मुझे अछूत जाना जाता है। इसलिए पुजारी मुझे मन्दिर में प्रवेश नहीं करने देता। मेरी बड़ी इच्छा है कि मैं उनके दर्शन करें, लेकिन यहाँ से मुझे सिर्फ भगवान श्रीविग्रह के चरण ही दिखाई देते हैं। मैं यहीं से यह जल और तुलसी दल अर्पण कर देती हूँ। उम्मीद है। कि एक न एक दिन परमात्मा मुझ पर भी अवश्य कृपा करेंगे।
अछूत देवी को याद आया कि महात्मा जी ने सारा वृत्तान्त जान कर अछूत देवी से कहा था, हे देवी तुम्हारे हृदय में प्रभुदर्शन की जो तड़प है वो एक दिन अवश्य पूरी होगी। हे देवी परमात्मा के सम्मुख सभी मनुष्य एक समान हैं वे के हृदय में विराजमान हैं। दर्शन की अभिलाषा एक दिन अवश्य पूरी होगी। मेरा विश्वास है कि एक दिन ऐसा भी आयेगा कि यही पुजारी तुम्हारे दर पर तुम्हें आदर सहित बुलाने आयेगा। ऐसा तो कभी होता ही नहीं कि कोई जीव उन्हें स्मरण करे और वे उसको स्मरण न करें।
पाठकों जो वृत्तान्त इस कहानी में दिया गया है उसका सीधा सम्बन्ध भगवत गीता के निम्न श्लोकों से है –
गीता अध्याय 9 श्लोक संख्या 32 इस प्रकार से है : “हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि-चाण्डाल आदि जो कोई भी हो, वो मेरे शरण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं।”9/32
यह श्लोक अछूत देवी पर पूरी तरह से लागू होता है। जिसे शूद्र होने के कारण मन्दिर में प्रवेश ही नहीं करने दिया जाता था, उन प्रभु चरणों में निष्काम प्रेम उसकी सबसे बड़ी योग्यता थी।
इसी अध्याय का 26 वॉं श्लोक निम्न प्रकार से है,
“जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ यह पत्र- पुष्पादि में सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूँ।” 9/28
भगवान श्रीविग्रह के चरणों में जो आर्द्रता थी और मुख में जो तुलसीदल, पुजारी रोज देखता था और उस रहस्य को जान नहीं पाता था। अछूत देवी द्वारा अर्पित जल
उनके चरणों में आर्द्रता के रूप में स्वीकार होता था और मुख में तुलसीदल इसी श्लोक को चरितार्थ करता है।
इस मन्दिर में आने वाले विभिन्न प्रकार के पकवान प्रभु को इतना प्रसन्न शायद ही करते, जितना अपने देवी द्वारा अर्पित जल और तुलसीदल करता था क्योकि ये सभी पकवान कामनापूर्ति हेतु अर्पण होते थे जबकि विधुत देवी द्वारा निष्काम माव से अर्पित जल और तुलसी दल पाकर प्रभु प्रसन्न होते थे
इसी अध्याय के 29वे श्लोक का विवरण इस प्रकार है
“मैं सब भूतों (मनुष्यों) में समभाव से व्यापक है, न कोई मेरा अप्रिय और न प्रिय है परन्तु जो भक्त मुझ को प्रेम से भजते हैं, वे मुझ में हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ 9/29
• प्रत्यक्ष प्रकट होने का विवरण निम्न प्रकार से है
जैसे सूक्ष्मरूप से सब जगह व्यापक हुआ अग्नि साधनों द्वारा प्रकट करने से ही प्रत्यक्ष होता है. वैसे ही सब जगह स्थित हुआ भी परमेश्वर भक्ति से भजने वालों के ही अन्तःकरण में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होता है।
इस श्लोक में प्रस्तुत भाव भी अछूत देवी में विद्यमान थे दिन-रात उठते-बैठते उपले बनाते और गृह कार्य करते समय परमात्मा का चिन्तन उसे भगवान का प्रिय बनाता था। समय का नियम है। नदी की तरह बहते रहना और मनुष्य का शरीर दिन पर दिन पुराना होता ही है। मनुष्य की शक्ति भी दिन पर दिन क्षीण होती है। इसी सम्बन्ध
में कठोपनिषद् के दूसरे अध्याय की तृतीय वल्ली का चौथा श्लोक उल्लेखनीय है
इस सर्वशक्तिमान, सबके प्रेरक और सब पर शासन करने वाले परमेश्वर को यदि कोई साधक इस दुर्लभ मनुष्य शरीर का नाश होने से पहले ही जान लेता है, अर्थात् जब तक इसमें भजन-स्मरण आदि साधन करने की शक्ति बनी हुई है और जब तक यह मृत्यु के मुख में नहीं चला जाता, तभी तक (इसके रहते-रहते ही) सावधानी के साथ प्रयल करके परमात्मा तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तब तो उसका जीवन सफल हो जाता है, अनादिकाल से जन्म-मृत्यु के प्रवाह में पड़ा हुआ यह जीव उससे छुटकारा पा जाता है। नहीं तो, फिर उसे अनेक कल्पों तक विभिन्न लोकों और योनियों में शरीर धारण करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अतएव मनुष्य को मृत्यु से पहले-पहले ही परमात्मा को जान लेना चाहिए ।4।।
इस श्लोक में ज्ञान, कर्म, भक्ति तीनों का समावेश है। तत्त्वज्ञान ही से तो ज्ञात होगा कि मनुष्य जीवन दुर्लभ क्यों है। भजन-स्मरण भक्ति के रूप हैं। भक्ति सकाम होगी तो सांसारिक वस्तुएं प्राप्त हो जायेंगी भक्ति अगर निष्काम होगी तो कई जन्मों के कर्मबन्धन समाप्त होकर मोक्ष अर्थात् ईश्वर का परमधाम प्राप्त होगा। अछूत देवी का शरीर रोगग्रस्त हुआ। तेज बुखार ने उसे चारपाई तक सीमित कर दिया। उस निर्जन स्थान पर अछूत देवी की सहायता के लिए कोई नहीं था। मटके में से थोड़ा पानी लेकर उसमें एक कपड़े का टुकड़ा भिगोकर मस्तक पर रखती और थोड़े समय के अन्तराल पर यही क्रम दोहराती रही। किन्तु दवाई का प्रबन्ध न होने के कारण बुखार कम नहीं हुआ। सहायता के लिए कोई था नहीं। जब अछूत देवी के सारे प्रयत्न बेकार हो गये तो उस असहाय अवस्था में उसने अपने आराध्य को पुकारा। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण की रट उस देवी ने लगा दी कई विद्वानों का मत है कि गीता में भक्तों को चार प्रकार से वर्गीकृत किया है अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी। इनमें से जो पुकार तेजी से उस सर्वशक्तिमान तक पहुँचती है वह आर्तभाव ही है। रामायण का प्रसंग याद आता है जब माता सीता की पुकार पर जटायु अपने से कई गुना ज्यादा शक्तिशाली रावण से भिड़ गया था और अन्ततः घायल होकर आर्त भाव से राम, राम, राम की रट लगा दी थी और श्रीराम को सीता हरण का संदेश देकर उनकी गोद में ही वीरगति प्राप्त की। रामचरित मानस में इसका वर्णन करते हुए श्री तुलसीदास ने एक अविस्मरणीय दोहा रचा।
“कोमल चित्त अति दीन दयाला, कारण बिन रघुनाथ कृपाला गीध, अधम, खग आमिष भोगी गति दीनी जो जाचत जोगी
जिन कृष्ण के चरणों का ध्यान धर कर अछूत देवी ने हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, हरे कृष्णा की पुकार लगाई थी वे दीन दयाल अपने भक्त की पुकार को अनसुना कैसे कर सकते थे।
मन्दिर में एक अजीब घटना घटित हुई। श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह ने रौद्र रूप धारण किया और उनकी प्रतिमा को ताप चढ़ गया। जिन श्रीचरणों को पुजारी रोज प्रक्षालन करके चरणामृत प्राप्त किया करता था उनके ताप के कारण पुजारी नजदीक नहीं जा पाया था। थोड़ी देर में ही यह समाचार नजदीक कस्बे में पहुँच गया। चमत्कार को देखने सैंकड़ों हजारों भक्तजन मन्दिर आने लगे किसी की हिम्मत श्रीकृष्ण की प्रतिमा के निकट जाने की नहीं हुई। समाचार उन सिद्ध महात्मा तक भी पहुँचा। मन्दिर आ पहुँचे और आते ही पुजारी को फटकार लगाई। हे पुजारी जिस अछूत देवी को तू मन्दिर में नहीं आने देता है वो श्रीकृष्ण को पूर्ण समर्पित भक्त है। जब उसने किसी भी कारण व्याकुल होकर उनको पुकारा तो वे प्रभु अपने भक्त के प्रति व्याकुल क्यों नहीं हों। श्रीकृष्ण प्रतिमा का यह रौद्र रूप उसी गलती का कारण है। अगर तू चाहता है कि प्रभु शान्त हो जायें तो उस देवी की कुटिया में जा और आदर सहित प्रभु दर्शन के लिए लेकर आ। महात्मा की वाणी को सुनकर वहाँ उपस्थित सारा जन-समुदाय पुजारी सहित उस देवी की कुटिया में पहुँचा। थोड़ी देर में ही सबके सम्मिलित प्रयासों से उस देवी को औषधि दी गई और वह स्वस्थ हुई। पुजारी अपनी गलती महसूस कर उस देवी को आगे करके मन्दिर में लाया। प्रभु श्रीविग्रह के दर्शन कर देवी निहाल हुई. उसकी काफी वर्षों की साधना सफल हुई।
प्रस्तुत है गीता के नवें यार का 30 और अया श्लोक:
“यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्या व से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है अर्थात् उसने भली-भौति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।
गीता 9/30-31
इस कहानी द्वारा मनुष्य को क्या शिक्षा मिलती है
इस कहानी द्वारा प्रत्येक मनुष्य जो शिक्षा ग्रहण कर सकता है उसका वर्णन भगवान कृष्ण ने गीता के आठवें अध्याय के श्लोक संख्या 14, 15, 16 में इस प्रकार वर्णन किया है “हे अर्जुन! जो मनुष्य मुझ में अनन्य-चित्त होकर सदा ही मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, उस नित्य निरन्तर योगी के लिए मैं सुलभ हैं, अर्थात् उसको सुलभता से प्राप्त हो जाता है।
(योगी का तात्पर्य है, जुड़ना चाहने वाला मनुष्य) इस प्रकार की परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझे प्राप्त करके, दुखों के घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते।
मुझ को प्राप्त होकर, पुनर्जन्म नहीं होता क्योंकि मैं कालातीत हूँ।” गीता 8/14, 15, 16
ऊपर लिखे श्लोक प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के लिए ध्यान देने के लिए पर्याप्त हैं। वास्तव में यह संसार दुखों से परिपूर्ण है। सुख एक हल्की छाँव की तरह आता है और फिर वही दुख की धूप मनुष्य सहता है। इसलिए मनुष्य को इस संसार से मुक्ति का प्रयत्न करना चाहिए और वर्तमान समय में आपकी स्थिति कुछ भी हो। प्रभु भक्ति का मार्ग अपनाया जा सकता है इसमें कोई दोष भी नहीं है क्योंकि भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता, अगर प्रयत्न छोटा भी हो तो भी उसे योगभ्रष्ट की गति तो मिलती ही है और अगले जन्म में वह फिर से प्रयत्न करके पूर्णता प्राप्त कर लेता है।
प्रभु भक्ति के लिए पहली योग्यता ‘उत्कट अभिलाषा है, क्योंकि जिसमें प्रभु मिलन की जबरदस्त अभिलाषा होगी, वही भक्ति करने का प्रयत्न करेगा।
परमात्मा का नित्य-निरन्तर स्मरण ही प्रभु भक्ति है। आपका लक्ष्य होना चाहिए परमात्मा के परम धाम’ की प्राप्ति।
प्रभु सिमरण कैसे करें के बारे में संत कबीर का यह दोहा
क्या भरोसा देह का, बिनस जाए क्षण माहीं।
स्वास स्वास सिमरण करो, और जतन कुछ नाहीं।।