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ज्ञान की गंगा।

The following text is part of chapter “The Concept of complete surrender ” from the book Kaam & Ram

गीता 18/61 की व्याख्या :

मनुष्य शरीर रूपी यन्त्र पर सवार है। जहाँ जहाँ यन्त्र जाएगा, वहीं मनुष्य पहुँच जाएगा। इस यन्त्र को भगवान स्वयं उसके हृदय में स्थित होकर अपनी माया द्वारा इस संसार में घुमा रहे हैं। माया क्या है? माया भगवान की अलौकिक शक्ति है जो तीन गुणों वाली है (गीता 7/14) अर्थात् सत्व गुण, रजोगुण, तमोगुण। ये तीनों गुण प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव में होते हैं। जैसा मनुष्य का स्वभाव होता है वैसा ही वो माया-अधीन प्राणी कर्म करता है और जैसे कर्म करता है वैस ही उसका फल भी होता है। सभी मनुष्यों को पूर्व–अर्जित कर्म संस्कारों अनुसार फल भुगतने के लिए बार-बार नाना योनियों में उत्पन्न करना तथा भिन्न-भिन्न पदार्थों, क्रियाओं से और प्राणियों से संयोग-वियोग कहानी और उनके इन्हीं गुणों जैसा स्वभाव होता है वैसा ही चेष्टा पुनः करता है यही है माया के अनुसार घूमना। इस प्रकार, मनुष्य सदा ही कर्म-बंधन में बंधा हुआ कर्म करने पर मजबूर है। किन्तु मनुष्य को जीवन के रहते-रहते इस बन्धन से छुटकारा पाने की स्वतन्त्रता भी प्राप्त है। अगर मनुष्य निष्काम कर्म करके और शास्त्र ज्ञान के अनुसार भगवान की शरण ग्रहण करक भगवान की भक्ति करके जीवन व्यतीत करता है तो मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी भी बन सकता है। शरणागति का लाभ प्राप्त करने के लिए ही श्रीकृष्ण अगले श्लोक में अपनी शरण में जाने की आज्ञा देते हैं।

“हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाग को प्राप्त होगा। 18/02

यपि अर्जुन गीता के दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में ही श्रीकृष्ण की शरणागति प्राप्त कर लेता है उसके शरणागत होते ही भगवान स्वयं गुरू की भूमिका में आये। सनातन धर्म में गुरू की जिम्मेदारी बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि शिष्य बनते ही गुरू पर अपने शिष्य का कल्याण करने का उत्तरदायित्व आ जाता है और पूरी गीता के श्लोकों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने पर ज्ञात हो जाना चाहिए कि भगवान ने तरह-तरह के वक्तव्यों द्वारा अर्जुन को समझाने का प्रयत्न किया है और भगवान के यही वचनामृत गीता जैसे ग्रन्थ के रूप में हमारे सामने है जिज्ञासु मनुष्य इसको ध्यानपूर्वक पढ़कर, सुनकर तथा जानकर युगों युगों तक लाभ प्राप्त करता रहेगा।

गीता के नवें अध्याय के 33वें श्लोक के उत्तरार्ध का यह उपदेश सभी मनुष्यों को सावधान करता है:
हे अर्जुन! तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर 9/33

मनुष्य देह बहुत ही दुर्लभ है। यह बड़े पुण्यबल और खास करके भगवान की कपा से मिलता है और मिलता है केवल भगवतप्राप्ति के लिए ही। इस शरीर को पाकर जो भगवतप्राप्ति के लिए साधन करता है, उसी का मनुष्य जीवन सफल होता है जो इसमें सुख खोजता है, वह तो असली लाभ से वंचित ही रह जाता है। क्योंकि यह सर्वथा सुखरहित है, इसमें कहीं सुख का लेश भी नहीं है। जिन विषय-गोगों के सम्बन्धों को मनुष्य सुखरूप समझता है वह चार बार जन्म गृत्यु के चक्कर में डालने वाला होने के कारण वस्तुतः दुखरूप ही है अतएव इसको सुखरूप न समझ कर यह जिस उद्देश्य की सिद्धि के लिए मिला है, उस उद्देश्य को शीघ्र-से-शीघ्र प्राप्त कर लेना चाहिए। क्योंकि यह शरीर क्षणभंगुर है पता नहीं, किस क्षण इसका नाश हो जाए। इसलिए सावधान हो जाना चाहिए और न इसे नित्य समझ कर भजन में देरी(124)

करनी चाहिए। कदाचित अपनी असावधानी में यह व्यर्थ ही नष्ट हो गया तो फिर सिवाए पछताने के और कुछ भी उपाय हाथ में नहीं रह जाएगा।

यदि इस मनुष्य जन्म में परमात्मा को जान लिया तब तो ठीक है और यदि उसे इस जन्म में नहीं जाना तब तो बड़ी भारी हानि है।

इसलिए भगवान कहते हैं कि ऐसे शरीर को पाकर नित्य-निरन्तर मेरा ही भजन करो। क्षण भर भी मुझे मत भूलो। भजन से ही भगवान की प्राप्ति शीघ्र होती है तथा भगवत प्राप्ति में ही मनुष्य जीवन के उद्देश्य की सफलता है, इसी हेतु से भजन करने के लिए कहा गया है।

गीता के जिस श्लोक (18/61) में भगवान ने जिस माया द्वारा सभी प्राणियों को उनके कर्म अनुसार भ्रमण कराने की बात कही थी इसका वर्णन पहले भी गीता के 7/14 में भी आया है जहाँ भगवान ने माया को अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी माया को दुस्तर बताया है और यह भी बताया है कि इसका उल्लंघन वे ही जीव कर सकते हैं जो मेरी शरण होकर निरन्तर मुझे भजते हैं। इसको स्पष्ट करने के लिए हम संत कबीर के बारे में प्रचलित कहानियों द्वारा समझने का प्रयास करते हैं :

कबीर ने अत्यन्त साधारण जीवन जिया और अपने अनुभव से सभी मनुष्यों को लाभान्वित किया पहला दृष्टान्त वैराग्य के बारे में है।

कबीर जुलाहा थे, अतः खड्डी पर कपड़ा बुनकर, फिर बुन हुए कपड़े को बाजार में बेचकर अपनी जीविका चलाते थे कार्य करते-करते कभी टहलने चले जाते थे। वाराणसी में मणिकर्णिका घाट उनके कार्य-स्थल से ज्यादा दूर नहीं था। इस घाट पर चौबीस घंटे मृत व्यक्तियों का शव दाह-संस्कार चलता ही रहता है। शायद इन्हीं से प्रभावित होकर उन्होंने इन पंक्तियों की रचना की:

हाड़ जलें ज्यों लाकड़ी, केश जले ज्यों घास।
सब जग जलता देखकर, भया कबीर उदास “

यह अकाट्य सत्य है कि बिना वैराग्य के माया अधीन प्राणी परमात्म-भजन में नहीं लगता। कबीर ईश्वर भजन करने के बारे में निम्न पद की रचना करते हैं –

“क्या भरोसा देह का, बिनस जाए क्षण माही।
स्वांस-स्वांस सिमरण करो, और जतन कुछ नाही”

वैराग्य जब मनुष्य-हृदय में उपजता है तभी मायाधीन मनुष्य प्रभु-जप की ओर उन्मुख होता है।

दूसरा दृष्टान्त :- कबीर का जीवन ज्यादातर मुफलिसी में कटता था जिस दुकान के लाला से कबीर खाने का सामान लाते थे उसका हिसाब काफी लम्बा हुआ तो लाला ने कबीर को टोका, कि कबीर तुम्हारा उधार काफी हो चुका है, तुम कसे चुकता कर पाओगे तुम्हारे पास गिरवी रखने के लिए भी कुछ नहीं विषय-लोलुप लाला की निगाहे कबीर की पत्नी लोई पर थी। लाला ने सुझाव दिया कि कबीर जब तक हिसाब चुकता नहीं करते तब तक अपनी पत्नी लोई को मेरे पास गिरवी रख दो। कबीर के मन में गीता के नवे अध्याय के 22 वें शलोक के अनुसार ईश्वर पर आस्था थी। वह इस प्रकार है:
जो अनन्यप्रेमी भजन मुझ परमेश्वर को निरन्तर कीर्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम में स्दयं प्राप्त कर देता हूँ।” गीता-9/22

ईश्वर भक्त कबीर ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और घर पहुँच कर पत्नी से बात की। पति को परमात्मा का रूप मानने वाली लोई सहर्ष चलने को तैयार हो गई। कबीर पत्नी को कंधे पर बैठा कर चलता हुआ लाला की दुकान की ओर चला। लाला ने दूर से ही कबीर को पत्नी के साथ आता हुआ देख लिया। यही प्रभु की माया शक्ति ने कमाल दिखाया। लाला अपनी दुकान पर जो घनश्याम की प्रतिमा को अगरबत्ती लगा कर आशीर्वाद प्राप्त करता था कबीर को सामने आता देख, लाला को अदभुत दृश्य दिखाई दिया। लाला को कबीर में घनश्याम की प्रतिमा दिखाई देने लगी। कबीर भी घनश्याम की तरह दिखाई देने लगे और कन्धे पर बैठी लोई भी घनश्याम की प्रतिमा की तरह दिखने लगी। लाला दृश्य देखकर दंग रह गया और उसे अपनी मूर्खता पर अफसोस हुआ लाला तुरन्त अपनी गद्दी से उठा और कबीर के पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगा कबीर तुम्हें जो कुछ चाहिए तुम बिना संकोच के मुझसे ले जाया करो। कथा कहती है कि उस लाला को दुकान से निरन्तर लाभ मिलना शुरू हो गया, कभी घाटा नहीं हुआ। कबीर जैसे सन्त को दान देकर लाला को अनायास ही द्रव्य यज्ञ (गीता 4/28) का लाभ प्राप्त होने लगा। न्यायपूर्वक तथा मेहनत से प्राप्त धन का पात्र व्यक्ति को दान देने के लिए ही कबीर ने निम्न पद की रचना की होगी।

“चिड़ी चोंच भर ले गई, नदी न घट्यो नीर। दान दिए धन न घटे, कहे दास कबीर।”

तीसरा दृष्टान्त : कबीर का धार्मिक कद बढ़ने से उस समय के कई तथाकथित पंडित ईर्ष्या करते थे कबीर की मुफलिसी से अवगत कुछ ईर्ष्यालु लोगों ने खबर फैला दी कि अमुक दिन कबीर बड़ा भंडारा करने वाले है खबर का असर हुआ और कई लोग तयशुदा दिन इकट्ठा होने लगे। कबीर क्या करते, मौके की नजाकत समझते हुए कबीर ने उस दिन घर से पलायन करके वीरान जंगल का रुख किया और संध्या होने तक वहीं रूके रहे। रात होने वाली थी और यह सोच कर कि अभी तक लोग निराश होकर, उसे कोसते हुए वापस लौट गये होंगे, कबीर अपने निवास की ओर लौटे। किन्तु कई साधुओं की भीड़ देखकर दंग रह गये। कहीं पूरी, कचौरी छन रही थीं, कई लोग पंक्ति में बैठ कर भोजन कर रहे थे, और यही नहीं दक्षिणा में सोने की मोहरें प्राप्त कर आशीर्वाद वचन देकर वापिस लौट रहे थे। प्रभु की माया देखकर कबीर सब समझ गए। अश्रुपूरित नेत्रों से मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद देते हुए कह उठे हे परमात्मा, हे अन्तर्यामी! आपने सिद्ध कर दिया कि अपने भक्तों का योगक्षेम आप ही अपने ऊपर ले लेते हैं। (गीता 9/22)

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अछूत देवी

The following story is from the book “Kaam and Raam” by ” Mr. Devraj Pathania”

श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक अक्सर मेरी कहानियों के सूत्रधार रहे हैं सनातन धर्म में उपासना की सगुण साकार और निर्गुण निराकार पद्धति के समर्थक रहे है, विभिन्न विद्वानों ने इसके पक्ष और विपक्ष में तरह-तरह के मत व्यक्त किए है गीता का बारहवां अध्याय भक्ति को समर्पित अध्याय है। इस अध्याय के पूर्व दस्वी और ग्यारहवें अध्याय विभूति-योग के नाम से जाना जाता है।

स्वयं भगवान के श्रीमुख से परमात्मा के सर्वव्यापक स्वरूप का वर्णन अर्जुन सुन भी चुका है और अर्जुन के अनुरोध पर ही भगवान ने उसे अपना विश्वरूप दिखा भीदिया था विश्वरूप को अर्जुन और फिर संजय द्वारा सारा विश्व जान चुका है।

ग्यारहवें अध्याय के इकतीसवें श्लोक में अत्यन्त भयभीत अर्जुन ने पूछा था कि मुझे बतलाइए कि इस उग्र रूप वाले आप कौन हो? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार हो। आप प्रसन्न होइए। आदिपुरुष आपको मैं विशेष रूप से जानना चाहता हूँ क्योंकि में आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता। गीता 11/31

श्री भगवान बोले – मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ है। इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा हैं वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात् तेरे युद्ध न करने पर भी इन सबका नाश हो जाएगा। गीता 11/32

कोविड-19 नामक महामारी से पूरे विश्व में लगने वाले शवों के ढेर के इस काल में यह श्लोक पूरी तरह से लागू है।

हे अर्जुन! मनुष्य लोक में इस प्रकार विश्वरूप वाला में न वेद और यज्ञों के अध्ययन से न दान से, न क्रियाओं से और न उग्र तपों से ही तेरे अतिरिक्त दुसरों के द्वारा देखा जा सकता है। गीता 11/48

आगे चलकर श्री भगवान ने भयभीत अर्जुन की प्रार्थना पर अपना सौम्य चतुर्भुज रूप दिखलाया।
गीता 11/50 श्लोक में संजय जो कि दिव्य दृष्टि द्वारा वर्णन कर रहे थे बोले – वासुदेव भगवान ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर से वैसे ही अपना चतुर्भुज रूप दिखलाया और फिर महात्मा श्रीकृष्ण ने सौम्य मूर्ति होकर इस भयभीत अर्जुन को धीरज दिया।

गीता 11/52 श्लोक में श्री भगवान बोले मेरा जो चतुर्भुज रूप तुमने देखा है. यह सुदुर्दश है अर्थात् इसके दर्शन बड़े ही दुर्लभ है। देवता भी सदा इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं।

गीता 11/53वें स्लोक में श्रीकृष्ण बोले – हे अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे लिए सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को करने वाला है. मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्ति हेितहै और सम्पूर्ण भूत प्राणियों में वैरभाव से रहित है। वह अनन्य भक्ति युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।

इन चुनिंदा श्लोक को उद्मृत करने का उद्देश्य यही है कि भगवान के अवतार काल में भी उनके ईश्वरीय रूप के दर्शन दुर्लभ है तो इस कलियुग में कैसे सम्भव है।

परन्तु जहाँ भक्ति करने के लिए प्रभु का सगुण साकार अथवा निर्गुण निराकार कौन-सा स्वरूप उपयुक्त है। इसका निर्णय भी अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से करवाना उचित समझा ।

गीता के अध्याय बारहयां श्लोक संख्या एक में अर्जुन बोले जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रह कर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं – उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगदेता कौन है? गीता 12/1

श्रीभगवान बोले मुझ में मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुण रूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझ को योगियों में अति उत्तम योगी मान्य है। गीता 12/2

परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य अचल निराकार, अविनाशी, सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भाजते है, वे सम्पूर्ण भूतों (मनुष्यों) के हित में रत और सब में समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं। श्लोक संख्या 3 और 4

उन सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्त वाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है; क्योंकि देहाभिमाने (स्वयं मनुष्य शरीर में स्थित) द्वारा अव्यक्त विषयक गति दुखपूर्वक प्राप्त की जाती है। परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके मुझ सगुण रूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति योग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं। गीता 12/5-6
हे अर्जुन! उन मुझ में चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्र से उदार करने वाला होता हूँ। गीता 12/7

मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा इसके उपरान्त मुझ में ही निवास करेगा. इसमें कुछ भी संशय नहीं है गीता 12/8

पाठकों, संसार में जितने भी ईश्वर को प्राप्त करने वाले प्रभु प्रिय साधक है उनके सामने ये सगुण-साकार अथवा निर्गुण-निराकार का प्रश्न उठना स्वाभाविक है। अर्जुन ने इसलिए स्वयं भगवान से प्रश्न करके उत्तर पा लिया। संसार में सभी सगुण साकार के साधक अपने सम्मुख भगवान के श्री विग्रह का रूप जैसे मूर्ति अथवा चित्रपट इत्यादि को अपने मन में उतारने का प्रयत् करते हैं।किन्तु चंचल मन नेत्र बन्द करके उसी स्वरूप को मन में धारणा नहीं कर पाते।

और निर्गुण निराकार के उपासक परमात्मा के किसी भी नाम को जो कि उनके अनुसार श्रेष्ठ हो अथवा किसी गुरु द्वारा दिया गया हो। उसका बार-बार मन ही मन उच्चारण करके ध्यानस्थ हो जाना ही प्रभु भक्ति मानते हैं।
अधिकतर साधकों का अनुभव है कि बार-बार कोशिश करने के उपरान्त भी ऐसा नहीं कर पाते, इसका उपाय भगवान श्रीकृष्ण ने अगले श्लोक में दिया है। यदि तू मन को मुझ में अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्यास रूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने के लिए इच्छा कर। गीता 12/9

इस अभ्यास करने के प्रभु के आदेश का संदर्भ गीता में कई बार आया है। इसका वर्णन भी आवश्यक है, किन्तु विषय विस्तार होने से इसे अभी यहीं रोका जा रहा है।

उपरोक्त सभी विषयों को एक कथा द्वारा समझने का प्रयास कीजिए।

राजस्थान के नाथद्वारा इलाके का विवरण है मुख्य कस्बे से हटकर, खुले इलाके में एक कृष्ण भगवान का मंदिर है मन्दिर में स्थापित श्रीकृष्ण के चक्रधारी रूप
की एक सुन्दर मूर्ति है। किसी सिद्ध मूर्तिकार द्वारा निर्मित यह सफेद संगमरमर की भव्य मूर्ति अत्यन्त दर्शनीय है। इसी कारण हजारों की संख्या में प्रभु भक्त इस मन्दिर की ओर खिंचे चले आते हैं। भव्य मूर्ति के आकर्षक रूप के कारण कई चित्र बनाने वाले चित्रकार भी यहाँ आते रहते हैं जो कि अपनी कला द्वारा इसी मूर्ति के चित्र बनाते हैं और मन्दिर में भेंट चढ़ा कर चले जाते हैं। इसी कस्बे के रहने वाली थी हमारी अछूत देवी। पति के जिन्दा रहते उसने दो पुत्रों को जन्म दिया, उनका लालन-पालन करके बड़ा किया, उनके विवाह किए। अपनी-अपनी गृहस्थी में मस्त उसकी सन्तान माता-पिता से बेपरवाह हो गई वक्त कब एक-सा रहता है। पति ब्रह्मलीन हो गए. रह गई अछूत देवी, अकेली इस संसार रूपी बीहड़ वन में। कई दिनों तक अकेलापन झेलने के उपरान्त अछूत देवी विक्षिप्त हो
गई।

वृद्धावस्था वैसे भी मनुष्य जीवन का सबसे कठिन समय होता है। दूसरों पर आश्रित होना वृद्धों की मजबूरी होती है।

आदि शंकराचार्य ने अपनी प्रसिद्ध लेख श्रृंखला भजगोविंदम में मनुष्य की वृद्धावस्था का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है “मनुष्य की क्षमता घटने पर सभी उसे छोड़ देते हैं। “जीव के रूप में मनुष्य मूलतः स्वार्थी होता है। साधारणतया वह कुछ नहीं देगा, जब तक कुछ पाने की आशा न हो। कुछ नहीं के लिए कुछ नहीं।” आदि शंकराचार्य का कहना है कि कोई भी मनुष्य तभी तक दूसरों प्रिय हो सकता है, जब तक उसमें कमाने और बचाने की शक्ति बनी है। जब मनुष्य की क्षमताएं घट जाती है उसका शरीर वृद्ध और निर्बल हो जाता है, तब उसके सभी मित्र और आश्रित उसे छोड़ देते हैं क्योंकि उससे उनका मतलब नहीं निकलता। संसार की यही रीत है।
भागवत महापुराण के तृतीय स्वामी भगवान के अवतार कपिल जी ने तीसवे आयाय के लोक संख्या 13 में वृद्धावस्था की दयनीय स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है:-

“इसे अपने पालन-पोषण में असमर्थ देखकर स्त्री-पुत्रादि इसका पहले के सामान आदर नहीं करते जैसे कृपण किसान बुढ़े बैल की उपेक्षा कर देते हैं ।।13।। फिर भी उसे वैराग्य नही होता। जिन्हें उसने स्वयं पाला था वहीं अब उसका पालन करते हैं । वृद्धावस्था के कारण इसका रूप बिगड़ जाता है शरीर रोगी हो जाता है, अग्नि मंद पड़ जाती है भोजन और पुरुषार्थ दोनों ही कम हो जाते हैं । वह मरणोन्मुख होकर घर में पड़ा रहता है और कुत्ते की भांति स्त्री पुत्र आदि के अपमान पूर्वक दिए हुए टुकड़े खाकर जीवन निर्वहन करता है । 4- 1511 यद्यपि अपवाद भी है कुछ मातृ देवो भव: पितृ देवो भव: का पालन करते है। किन्तु अधिकांश जीवन ऐसा ही है। मृत्यु का समय निकट आने पर वायु के उत्क्रमण से इसकी पुतलियां चढ़ जाती है श्वास-प्रश्वास की नलिका कफ से रुक जाती है खान स्नेह और सांस लेने में भी इसे बहुत कष्ट होता है तथा कफ बढ़ जाने के कारण कंठ में घुरघुराहट होने लगती है यह अपने शोक आतुर बंधु बंधुओं से गिरा पड़ा रहता है और मृत्यु पाश के वशीभूत हो जाने से उनके बुलाने पर भी नहीं बोल सकता।17।।

विधवा जीवन जीते-जीतेअछूत देवी टूट गई थी। उसकी आस सिर्फ भगवान कृष्ण पर अभी भी अडोल थी उनके पति घर में गीता का पाठ करते थे और जहाँ कहीं सत्संग होता था वह पत्नी सहित शामिल होते थे। वहीं से उसे कृष्ण भगवान की भक्ति की लौ लग गई थी। संसार की यही रीत है कि आस्तिक दुख के समय अपने हाथ ऊपर की और उठा कर विधाता से दुख निवारण की याचना करता है। देवी ने विधवा होने के पश्चात् अपना मंगलसूत्र उतार कर एक कपड़े में कर रख दिया था. ऐसे समय उसको उसकी याद आई। मंगलसूत्र में सोने के कुछ टुकडे लगे थे। एक सुनार के पास जाकर उसने उसके सामने रख दिए। सुनार ने उसका मोल करके कुछ रुपये उसे दे दिये। श्री कृष्ण मन्दिर के आसपास काफी खुला इलाका था अतः देवी ने उसी इलाके में एक कुटिया अपने लिए बना ली। पानी भरने के लिए और खाना बनाने के लिए आवश्यक सामान व बरतन उसने खरीद लिये। मन्दिर पास ही एक कुआं था और रस्सी और बाल्टी की व्यवस्था भी थी। दो तीन तगारिया उसने खरीद ली थीं। इनमें वो कस्बे से गाय भैसों का गोबर भर कर लाने लगी इसी से वो उपले बनाकर अपनी कुटिया के आसपास सुखा लेती थी। तैयार उपले कस्बे में बेच कर कुछ रकम की व्यवस्था हो जाता। उसी से उसे भोजन की जरूरत पूरी हो जाती थी।

जिसको भगवान में लौ लग जाती है उसे फिर वह दिन-रात उठते बैठते याद करने लग जाता है ।उसका नाम ले लेकर बार-बार उसे याद करने लग जाता है ।अछूत देवी को उपले बनाने और उसे सुखाने और सूखे उपले इकट्ठे करके कस्बे में बेचने के अलावा और कोई काम तो था नहीं।वह। हर समय वह भगवान कृष्ण को याद करते-करते काम किया करती थी बड़े-बड़े योगी जिस नाम स्वरूप का अभ्यास करने में अपनी पूरी तन्मयता के साथ प्रभु से जुड़ने का प्रयास करते हैं। अछूत देवी उस नाम स्मरण को अनायास ही कर लेती थी प्रतिदिन प्रातः काल वह अपनी दैनिक दिनचर्या से अवकाश लेकर एक लोटे में थोड़ा जल लेकर वह उस तुलसी के पौधे को जल अर्पित करती थी जो उसने अपनी कुटिया के पास ही लगा रखा था ।उसके उपरांत उसी लोटे में जल भरकर और उसमें इस तुलसीदल डालकर वह मंदिर की ओर जाती थी ।
घोर छुआछूत के इस युग में शूद्र होने के कारण उस देवी को इस कथा में अछूत देवी का शीर्षक दिया गया है। उसका मंदिर में प्रवेश वर्जित था । उस देवी की बड़ी इच्छा थी कि वह मंदिर के अंदर स्थित भगवान कृष्ण के श्री विग्रह का दर्शन करें जो उसके ख्यालों में दिन रात ही बसते थे। मंदिर की सीढ़ियों से कुछ दूर ही वह मंदिर के दरवाजे से अंदर झांकने का प्रयास करती थी किंतु बाहर से बड़ी कोशिश के उपरांत भी उसको श्री विग्रह के चरणों की थोड़ी सी झलक ही प्राप्त हो पाती थी ।बाहर से खड़े खड़े देवी अपने आराध्य को जल अर्पित कर देती थी और नेत्र बंद करके कल्पना करती थी कि चरणों के ऊपर श्री कृष्ण का रूप कैसा सुंदर होगा जिस स्वरुप ध्यान का अभ्यास बड़े-बड़े योगी नहीं कर पाते थे वह देवी अपनी कल्पना शक्ति के द्वारा कर लेती थी। पाठको भगवान का एक नियम है कि जो श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय और ग्यारवें श्लोक में प्रकट किया है। श्लोक निम्न प्रकार ह
” हे अर्जुन जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूं क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं 411 एक अन्य व्याख्या का श्री रामसुखदास जी ने भगवत गीता के श्लोकों के भावार्थ को निम्न प्रकार से किया है :-
“हे पृथा नंदन जो भक्त मेरी जिस प्रकार से शरण लेते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूं क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं।”

इस उदाहरण में अछूत देवी श्री कृष्ण के बिना व्याकुल रहती थी तो वह भी उसके बिना व्याकुल रहते थे

श्रीकृष्ण के इस मंदिर का नियम था कि प्रातः काल पुजारी द्वारा भगवान के विग्रह का पद ग्रहण किया जाता था इस जल को पुजारी बात में चरणामृत के रूप में लोटे में एकत्रित करके मंदिर में आने वाले भक्तों को चरणामृत के रूप में वितरित करता था जिसे सभी भक्त सादर सहित ग्रहण करते थे नजदीकी कस्बे से कई प्रकार के पकवान भी आते थे जिन्हें पुजारी द्वारा पूजा अर्चना के उपरांत भगवान को भोग लगाने के पश्चात मंदिर में दर्शनों के लिए आए भक्तों को प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता था एक चमत्कार रोज देखता महसूस करता है यह था कि पद के पूर्व महसूस करता था कि श्री विग्रह आता है और एक तुलसी दल था जो कि पुजारी द्वारा भगवान को भोग लगाने के साथ ही गायब हो जाता था। पुजारी इसे सामान्य सी बात मान कर अपना कार्य करता रहता था।

एक दिन मन्दिर में एक विशेष सत्संग आयोजन होने वाला था। एक सिद्ध सन्त पधारे तो मन्दिर की सीढ़ियों के पास अछूत देवी को वहाँ मन्दिर की ओर टकटकी बाँधे देख लिया. जिज्ञासावश उन्होंने उस देवी से पूछ लिया कि आप कौन हैं और यहाँ से क्या देख रही है?

देवी ने उत्तर दिया कि मैं एक विधवा हूँ और शूद्र जाति से होने के कारण, मुझे अछूत जाना जाता है। इसलिए पुजारी मुझे मन्दिर में प्रवेश नहीं करने देता। मेरी बड़ी इच्छा है कि मैं उनके दर्शन करें, लेकिन यहाँ से मुझे सिर्फ भगवान श्रीविग्रह के चरण ही दिखाई देते हैं। मैं यहीं से यह जल और तुलसी दल अर्पण कर देती हूँ। उम्मीद है। कि एक न एक दिन परमात्मा मुझ पर भी अवश्य कृपा करेंगे।

अछूत देवी को याद आया कि महात्मा जी ने सारा वृत्तान्त जान कर अछूत देवी से कहा था, हे देवी तुम्हारे हृदय में प्रभुदर्शन की जो तड़प है वो एक दिन अवश्य पूरी होगी। हे देवी परमात्मा के सम्मुख सभी मनुष्य एक समान हैं वे के हृदय में विराजमान हैं। दर्शन की अभिलाषा एक दिन अवश्य पूरी होगी। मेरा विश्वास है कि एक दिन ऐसा भी आयेगा कि यही पुजारी तुम्हारे दर पर तुम्हें आदर सहित बुलाने आयेगा। ऐसा तो कभी होता ही नहीं कि कोई जीव उन्हें स्मरण करे और वे उसको स्मरण न करें।
पाठकों जो वृत्तान्त इस कहानी में दिया गया है उसका सीधा सम्बन्ध भगवत गीता के निम्न श्लोकों से है –

गीता अध्याय 9 श्लोक संख्या 32 इस प्रकार से है : “हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि-चाण्डाल आदि जो कोई भी हो, वो मेरे शरण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं।”9/32

यह श्लोक अछूत देवी पर पूरी तरह से लागू होता है। जिसे शूद्र होने के कारण मन्दिर में प्रवेश ही नहीं करने दिया जाता था, उन प्रभु चरणों में निष्काम प्रेम उसकी सबसे बड़ी योग्यता थी।

इसी अध्याय का 26 वॉं श्लोक निम्न प्रकार से है,

“जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ यह पत्र- पुष्पादि में सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूँ।” 9/28
भगवान श्रीविग्रह के चरणों में जो आर्द्रता थी और मुख में जो तुलसीदल, पुजारी रोज देखता था और उस रहस्य को जान नहीं पाता था। अछूत देवी द्वारा अर्पित जल
उनके चरणों में आर्द्रता के रूप में स्वीकार होता था और मुख में तुलसीदल इसी श्लोक को चरितार्थ करता है।
इस मन्दिर में आने वाले विभिन्न प्रकार के पकवान प्रभु को इतना प्रसन्न शायद ही करते, जितना अपने देवी द्वारा अर्पित जल और तुलसीदल करता था क्योकि ये सभी पकवान कामनापूर्ति हेतु अर्पण होते थे जबकि विधुत देवी द्वारा निष्काम माव से अर्पित जल और तुलसी दल पाकर प्रभु प्रसन्न होते थे

इसी अध्याय के 29वे श्लोक का विवरण इस प्रकार है

“मैं सब भूतों (मनुष्यों) में समभाव से व्यापक है, न कोई मेरा अप्रिय और न प्रिय है परन्तु जो भक्त मुझ को प्रेम से भजते हैं, वे मुझ में हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ 9/29

• प्रत्यक्ष प्रकट होने का विवरण निम्न प्रकार से है

जैसे सूक्ष्मरूप से सब जगह व्यापक हुआ अग्नि साधनों द्वारा प्रकट करने से ही प्रत्यक्ष होता है. वैसे ही सब जगह स्थित हुआ भी परमेश्वर भक्ति से भजने वालों के ही अन्तःकरण में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होता है।

इस श्लोक में प्रस्तुत भाव भी अछूत देवी में विद्यमान थे दिन-रात उठते-बैठते उपले बनाते और गृह कार्य करते समय परमात्मा का चिन्तन उसे भगवान का प्रिय बनाता था। समय का नियम है। नदी की तरह बहते रहना और मनुष्य का शरीर दिन पर दिन पुराना होता ही है। मनुष्य की शक्ति भी दिन पर दिन क्षीण होती है। इसी सम्बन्ध
में कठोपनिषद् के दूसरे अध्याय की तृतीय वल्ली का चौथा श्लोक उल्लेखनीय है

इस सर्वशक्तिमान, सबके प्रेरक और सब पर शासन करने वाले परमेश्वर को यदि कोई साधक इस दुर्लभ मनुष्य शरीर का नाश होने से पहले ही जान लेता है, अर्थात् जब तक इसमें भजन-स्मरण आदि साधन करने की शक्ति बनी हुई है और जब तक यह मृत्यु के मुख में नहीं चला जाता, तभी तक (इसके रहते-रहते ही) सावधानी के साथ प्रयल करके परमात्मा तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तब तो उसका जीवन सफल हो जाता है, अनादिकाल से जन्म-मृत्यु के प्रवाह में पड़ा हुआ यह जीव उससे छुटकारा पा जाता है। नहीं तो, फिर उसे अनेक कल्पों तक विभिन्न लोकों और योनियों में शरीर धारण करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अतएव मनुष्य को मृत्यु से पहले-पहले ही परमात्मा को जान लेना चाहिए ।4।।

इस श्लोक में ज्ञान, कर्म, भक्ति तीनों का समावेश है। तत्त्वज्ञान ही से तो ज्ञात होगा कि मनुष्य जीवन दुर्लभ क्यों है। भजन-स्मरण भक्ति के रूप हैं। भक्ति सकाम होगी तो सांसारिक वस्तुएं प्राप्त हो जायेंगी भक्ति अगर निष्काम होगी तो कई जन्मों के कर्मबन्धन समाप्त होकर मोक्ष अर्थात् ईश्वर का परमधाम प्राप्त होगा। अछूत देवी का शरीर रोगग्रस्त हुआ। तेज बुखार ने उसे चारपाई तक सीमित कर दिया। उस निर्जन स्थान पर अछूत देवी की सहायता के लिए कोई नहीं था। मटके में से थोड़ा पानी लेकर उसमें एक कपड़े का टुकड़ा भिगोकर मस्तक पर रखती और थोड़े समय के अन्तराल पर यही क्रम दोहराती रही। किन्तु दवाई का प्रबन्ध न होने के कारण बुखार कम नहीं हुआ। सहायता के लिए कोई था नहीं। जब अछूत देवी के सारे प्रयत्न बेकार हो गये तो उस असहाय अवस्था में उसने अपने आराध्य को पुकारा। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण की रट उस देवी ने लगा दी कई विद्वानों का मत है कि गीता में भक्तों को चार प्रकार से वर्गीकृत किया है अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी। इनमें से जो पुकार तेजी से उस सर्वशक्तिमान तक पहुँचती है वह आर्तभाव ही है। रामायण का प्रसंग याद आता है जब माता सीता की पुकार पर जटायु अपने से कई गुना ज्यादा शक्तिशाली रावण से भिड़ गया था और अन्ततः घायल होकर आर्त भाव से राम, राम, राम की रट लगा दी थी और श्रीराम को सीता हरण का संदेश देकर उनकी गोद में ही वीरगति प्राप्त की। रामचरित मानस में इसका वर्णन करते हुए श्री तुलसीदास ने एक अविस्मरणीय दोहा रचा।

“कोमल चित्त अति दीन दयाला, कारण बिन रघुनाथ कृपाला गीध, अधम, खग आमिष भोगी गति दीनी जो जाचत जोगी

  • अरण्यकाण्ड

जिन कृष्ण के चरणों का ध्यान धर कर अछूत देवी ने हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, हरे कृष्णा की पुकार लगाई थी वे दीन दयाल अपने भक्त की पुकार को अनसुना कैसे कर सकते थे।

मन्दिर में एक अजीब घटना घटित हुई। श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह ने रौद्र रूप धारण किया और उनकी प्रतिमा को ताप चढ़ गया। जिन श्रीचरणों को पुजारी रोज प्रक्षालन करके चरणामृत प्राप्त किया करता था उनके ताप के कारण पुजारी नजदीक नहीं जा पाया था। थोड़ी देर में ही यह समाचार नजदीक कस्बे में पहुँच गया। चमत्कार को देखने सैंकड़ों हजारों भक्तजन मन्दिर आने लगे किसी की हिम्मत श्रीकृष्ण की प्रतिमा के निकट जाने की नहीं हुई। समाचार उन सिद्ध महात्मा तक भी पहुँचा। मन्दिर आ पहुँचे और आते ही पुजारी को फटकार लगाई। हे पुजारी जिस अछूत देवी को तू मन्दिर में नहीं आने देता है वो श्रीकृष्ण को पूर्ण समर्पित भक्त है। जब उसने किसी भी कारण व्याकुल होकर उनको पुकारा तो वे प्रभु अपने भक्त के प्रति व्याकुल क्यों नहीं हों। श्रीकृष्ण प्रतिमा का यह रौद्र रूप उसी गलती का कारण है। अगर तू चाहता है कि प्रभु शान्त हो जायें तो उस देवी की कुटिया में जा और आदर सहित प्रभु दर्शन के लिए लेकर आ। महात्मा की वाणी को सुनकर वहाँ उपस्थित सारा जन-समुदाय पुजारी सहित उस देवी की कुटिया में पहुँचा। थोड़ी देर में ही सबके सम्मिलित प्रयासों से उस देवी को औषधि दी गई और वह स्वस्थ हुई। पुजारी अपनी गलती महसूस कर उस देवी को आगे करके मन्दिर में लाया। प्रभु श्रीविग्रह के दर्शन कर देवी निहाल हुई. उसकी काफी वर्षों की साधना सफल हुई।
प्रस्तुत है गीता के नवें यार का 30 और अया श्लोक:

“यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्या व से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है अर्थात् उसने भली-भौति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।

गीता 9/30-31

इस कहानी द्वारा मनुष्य को क्या शिक्षा मिलती है

इस कहानी द्वारा प्रत्येक मनुष्य जो शिक्षा ग्रहण कर सकता है उसका वर्णन भगवान कृष्ण ने गीता के आठवें अध्याय के श्लोक संख्या 14, 15, 16 में इस प्रकार वर्णन किया है “हे अर्जुन! जो मनुष्य मुझ में अनन्य-चित्त होकर सदा ही मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, उस नित्य निरन्तर योगी के लिए मैं सुलभ हैं, अर्थात् उसको सुलभता से प्राप्त हो जाता है।

(योगी का तात्पर्य है, जुड़ना चाहने वाला मनुष्य) इस प्रकार की परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझे प्राप्त करके, दुखों के घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते।
मुझ को प्राप्त होकर, पुनर्जन्म नहीं होता क्योंकि मैं कालातीत हूँ।” गीता 8/14, 15, 16
ऊपर लिखे श्लोक प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के लिए ध्यान देने के लिए पर्याप्त हैं। वास्तव में यह संसार दुखों से परिपूर्ण है। सुख एक हल्की छाँव की तरह आता है और फिर वही दुख की धूप मनुष्य सहता है। इसलिए मनुष्य को इस संसार से मुक्ति का प्रयत्न करना चाहिए और वर्तमान समय में आपकी स्थिति कुछ भी हो। प्रभु भक्ति का मार्ग अपनाया जा सकता है इसमें कोई दोष भी नहीं है क्योंकि भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता, अगर प्रयत्न छोटा भी हो तो भी उसे योगभ्रष्ट की गति तो मिलती ही है और अगले जन्म में वह फिर से प्रयत्न करके पूर्णता प्राप्त कर लेता है।
प्रभु भक्ति के लिए पहली योग्यता ‘उत्कट अभिलाषा है, क्योंकि जिसमें प्रभु मिलन की जबरदस्त अभिलाषा होगी, वही भक्ति करने का प्रयत्न करेगा।

परमात्मा का नित्य-निरन्तर स्मरण ही प्रभु भक्ति है। आपका लक्ष्य होना चाहिए परमात्मा के परम धाम’ की प्राप्ति।

प्रभु सिमरण कैसे करें के बारे में संत कबीर का यह दोहा
क्या भरोसा देह का, बिनस जाए क्षण माहीं।
स्वास स्वास सिमरण करो, और जतन कुछ नाहीं।।

A Short Story in English Language

The following story is from book “Kaam and Raam”

When I started writing, my friend Mr. Thomas a truth speaking gentleman arrived and enquired what is being written by me. I replied, I intend to write a book entitled as “Kaam and Raam”. The problem between Thomas and me is, his knowledge of Hindi language is less and my English vocabulary is also limited, even then I tried to explain him that “Kaam” means the lust for sex and unlimited desires. Raam means almighty and creator of this universe. Inspite of science’s advancement man is still to understand about this vast space created by God. He has blessed the man with fulfillment of his basic requirements. He is also the judge of man’s doings after his death. Thomas asked please explain me the meaning of this prayer which you have written. I said, this prayer is in Sanskrit language, even I am explaining it to my best.

The man pray to God that only you are my mother, only you are my father, only you are my brother, and only you are my best friend. Only you are my knowledge, and only you are my wealth and above all you are my “Sarvam’ means everything. Thomas said that he very well know that your parents, brother has died years ago, then how your God can be all this.
I replied we believe that man takes the rebirth after death of the present body. Body is like cloths of divine Soul, which is immortal like God is immortal. So in every new birth everything belonging to the body also changes, that is why God is only real relative of the man, who is unchanged. Thomas asked OK, then how he is your wealth, does God sends the cheques and drafts from heaven, and what is this Sarvam’.

I replied the ‘Sarvam’ is everything and man’s all is only God. Now I asked Thomas.now tell me about your ‘Sarvam’.
Thomas replied my ‘Sarvam’ is, which I keep in bank, I mean the money which can buy everything I require. Previously I used to keep it only in bank but now fearing the tax people I keep it hiding in my bed and over head tank of flushing system in my toilet.

Now Thomas enquired that where my Sarvam lives. I said that my Sarvam’ is everywhere. He always lives in my heart, as well as it is in your heart also. He lives in the heart of everybody in this universe. Nobody can survive without him. There is useless quarrel among various followers of different religions, be it a Hindu, Buddhist, Christian like you and Muslim and this way we are all brothers. Thomas asked can I show him any picture of my Sarvam, I pointed towards pictures framed on wall. OK this is your Sarvam’ with four hands. I said yes he is. Thomas left after saying goodbye and good wishes to me.
After one hour, Thomas retumed to me weeping. He had tears in his eyes and his nose was also running, astonished by the circumstances I enquired Thomas what happened. First of all I gave him two tissue papers and said please do not weep and wipe out your tears and clear your running nose. Please calm-down and tell me what happened.
Thomas said as I left you, I did not know that a dacoit is following me. As I reached home, he hit me from back and closed the door. Then he took out a big knife and pointed it towards me, pushing me to the wall. He taped my mouth immediately and tied me to a chair with rope he carried with him.

Actually when I was explaining about my ‘Sarvam’ to you, he was listening everything, standing outside window of your house. Within minutes he searched my bed and taken away all the money I kept there, and then he rushed to my toilet and fled away with all the money I kept there. While leaving my home he again warned me with dangerous knife that if I shouted, he would tear me like a cloth. Shivering with fear the way everything happened, my lower abdomen started boiling. Somehow I got rid off the rope with which he tied me. The boiling material in my stomach reached to height and I could hardly reach to the seat of my toilet and got relived of stormed gas, which bursted out with lots of noise and very bad smell. I thanked God but he saved my life, but now new problem arises, while searching the money in overhead tank, dacoit spoiled the flushing systemof my toilet, anyhow I cleaned my bottom with toilet paper, but it was half done.

Listening the long story I said, Mr. Thomas you have come to me with your dirty bottom and pant. Now you please go to my toilet and clean it properly. After fifteen minutes, he appeared again in the room. I advised him let us go to police station. Thomas immediately said no, I don’t want to put myself in more trouble, because it was black money, I said Mr. Thomas listen carefully to me now onwards, in future do not hide anything from Govt. Pay your taxes honestly and live in peace and if you want eternal peace now go to your home and sleep peacefully and come tomorrow. Next day Thomas arrived with fresh smiling face, I said, are you ready to listen the divine way of worshipping your 'Sarvam' I mean the God. Remember money can never be a substitute of almighty, as you go on accumulating it, you fills yourself with greed and so many other troubles The example is what happened to you yesterday. Now are you ready to feel the divine happiness, he said, yes. Now I started giving him my advice. Please go to Church now at once. Enter the confession box and bow your head before almighty, Admit all your

wrong deeds before him with clear heart, remember he is very kind to the man who wish to become a real kind hearted gentleman and now pray him with the core of your heart, the best way you can.
Now use the process I advise you accordingly to the best of my knowledge.

Oh my Lord, the Supreme power of this universe, dedicate my all the efforts of meditating to you, please shower your heavenly blessings upon me and help me to pray you. Close the eyes, so you may be able to look into your heart. Start Looking at your breathing, you are inhaling and exhaling the breaths. Keep looking your breath for at least fifteen minutes. This way you will be able to concentrate on meditation, se only to your breaths and nothing else. If your mind goes somewhere else, bring it again to concentrate on your breathing.

Now say Jesus’ when you inhale and say Jesus’ when you exhale. Repeat this process daily at least half an hour. When you complete the process. Pay whole-hearted thanks to God.

Oh my Lord Jesus the supreme power of this universe, I am happy to have your blessings to meditate according to this process. I bow my head before you. Thanks from the core of my heart,

Mr. Thomas you will feel that you are the happiest person of the world.

Practice everyday. Keep your head and backbone straight at 90. If you are not, then you may use the simple chair where you can sit easily at least for one hour.

Thanks for listening me.

प्रस्तावना पुस्तक ‘ काम औऱ राम’

The following content is from the book “Kaam aur Raam” by Mr. Devraj Pathania

हर रचना के पीछे कोई प्रेरणा-सोत होता है। मेरे लिए यह कार्य किया श्रीमद्भागवत गीता के निम्नलिखित श्लोकों ने
सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझ में त्याग कर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्तकर दूंगा, तू शोक मत कर। 18/66
तुझे यह गीता रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए. न भक्ति रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से भी कहना चाहिए: तथा जो मुझ में दोष दृष्टि रखता है उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए। 18/67

जो पुरुष मुझ में परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा इसमें कोई सन्देह नहीं है। 18/68
उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है; तथा पृथ्वी भर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं। 18/69
जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद रूप गीता शास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा – ऐसा मेरा मत है। 18/70

जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोष दृष्टि से रहित होकर इस गीता शास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कार्य करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा। 18/71
इन छः श्लोकों में इच्छुक मनुष्य को क्या करना है, किसे इस गीता शास्त्र को नहीं कहना है, किसे कहना है और भक्ति भाव से इसका अध्ययन करना, श्रद्धायुक्त
मनुष्यों में इसकी चर्चा अवश्य करनी चाहिए।

उपरोक्त सभी प्रभु के निर्देशों को ध्यान में रखकर सर्वप्रथम अपने सत्संगी भाईयों में सत्संग में इसकी चर्चा करने का संकल्प लिया।

ईश प्रेरणा से हम सत्संग तो काफी समय से करते आ रहे थे किन्तु सांसारिक कार्यकलापों की ओर ध्यान अधिक रहता था जबकि इसे जीवन में प्राथमिकता देनी चाहिए थी। सत्संग मण्डली में हम कुल चार व्यक्ति थे उसमें से भी परिस्थितिवश तीन ही रह गये। कारण स्पष्ट है। इस घोर कलियुग में इस राह पर चलने वाले पथिक
बहुत कम मिलते हैं।
जीवन कब एक-सा रहता है। ईश-इच्छा से 27 जून 2016 को दिल का दौरा पड़ा. उस समय भी मेरे सत्संगी साथी ही सत्संग से मेरे साथ अस्पताल स्वाना हुए।एंजियोग्राफी से मालूम हुआ कि तीनों Arteries बन्द हैं। Blockage काफी ज्यादा बढ़ी हुई थी। मेरा पुत्र मुझे मेदांता अस्पताल ले गया बाईपास सर्जरी 7 जुलाई 2016 को सम्पन्न हुई। स्वभाव से मैं बहुत डरपोक प्राणी हूँ किन्तु ईश्वर शरणागति के भाव ने मुझे हिम्मत प्रदान की। ऑपरेशन के बाद तीन दिन में ICU में रहा और उस स्थिति में एक ही भावना रही कि जीवन तो समाप्त प्रायः ही है अब, मुझे आयु का बोनस काल मिला है। अतः बाकी कार्यों को छोड़कर अब प्रभु-भक्ति कार्य ही करना है। अतः कॉलोनी के मन्दिर पहुँच कर सत्संग की ओर ध्यान देने का कार्यक्रम बनाया किन्तु योजना सफल नहीं हुई। इसके अलावा कैसे पता चले कि कौन सुनने का इच्छुक है और कौन श्रद्धालु या अश्रद्धालु है।

बहुत विचार करने के उपरान्त कुछ विचार लिपिबद्ध करके पुस्तक रूप में छपवाने का संकल्प लिया ताकि इच्छुक पढ़ें, अनिच्छुक न पढ़ें। सत्संगी साथी जो काफी समझदार हैं, ने मुझे समझाया कि इस काल में ऐसी पुस्तकों को लोग पढ़ना, समय व्यर्थ करना समझते हैं यदि कहानी संग्रह या उपन्यास हो तो फिर भी कुछ बात बने।
इसी वास्तविकता को ध्यान में रखकर पुस्तक में कहानियों की अधिकता है। हर कहानी में कोई न कोई संदेश है जिसका आधार गीता के श्लोक ही रहे हैं पुस्तक का आरम्भ अंग्रेजी भाषा में एक कहानी से लेकर पुस्तक का अन्त भी एक प्रेरणादायक कथा से ही किया गया है। एक पुनर्जन्म पर आधारित कहानी भी है जो सनातन धर्म के सिद्धान्तों के आधार पर ही है।

कहानियों की रचना फिक्शन का कार्य है, किन्तु स्थान, काल का चुनाव इस प्रकार किया गया है, ताकि वह वास्तविक प्रतीत हों। विशेषकर अपने मित्र कामदेव को
आधार बना कर जो कहानी लिखी गई है उसके पात्र काल्पनिक हैं किसी जीवित या मृत व्यक्ति से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।

कहानियों के बीच में गीता के श्लोकों का सरलार्थ करने की कोशिश की गई है।

गीता जैसे अमर ग्रन्थ पर सैंकड़ों टीकायें उपलब्ध हैं। मैंने भी गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित किए ग्रन्थों का काफी उपयोग किया है। यद्यपि चोटी के विद्वानों की कृतियों के आगे मेरी पुस्तक बाल सुलभ चपलता ही कही जानी चाहिए क्योंकि इसका ताना-बाना एक अल्पा द्वारा रचा गया है कोशिश है कि साधारण बुद्धि वाले भी समझ कर लाभ उठा सकें।

उपनिषदों में वेदों का ज्ञान उपलब्ध है। यह सनातन धर्म का आधार है। मैंने सिर्फ कठोपनिषद और श्वेताश्वतर उपनिषद में वर्णित ज्ञान के कुछ अंश सम्मिलित किये
है। कठोपनिषद को मैंने सरल हिन्दी भाषा में व्याख्या सहित पूरा ज्यों का त्यों रखने का प्रयास किया है। इसकी लोकप्रियता के कारण भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Discovery of India में इसकी कथावस्तु को स्थान दिया है। इसमें ईश्वर को प्राप्त करने के लिए भक्तिमार्ग को अपनाने वाले साधकों के लिए काफी उपयोगी सामग्री है। इसकी कथावस्तु यमराज और नचिकेता के मध्य संवाद रूप में है अर्थात् यह भी एक कथा के रूप में अत्यन्त उपयोगी ज्ञान है। बार-बार पढ़िये और परमार्थ लाभ प्राप्त कीजिए।

यह पुस्तक 2018 में शुरू की गई थी। वृद्धावस्था के कारण और रोगी शरीर लेखन में बाधा बना। अब पूर्णता की और अग्रसर है यह प्रयास Self publishing और Self Marketing पर आधारित है। सफलता ईश्वर इच्छा से ही सम्भव है पाठकों के हाथ में जाने पर प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। आलोचनात्मक टिप्पणियों का भी स्वागत है। यदि कुछ पाठक ही, प्रेरणा लेकर भक्ति पथ पर अग्रसर हों तो मैं कोशिश को सफल समझेंगा और आगे के लिए भी प्रोत्साहन मिलेगा।

पुस्तक का नाम ‘काम और राम’ क्यों स्खा है ? काम ही वह कुटैव है जो मनुष्य को राम से दूर करता है। विद्वानों ने स्पष्ट कहा है कि :
जहाँ काम, तहाँ नहीं राम
जहाँ राम, तहाँ नहीं काम
स्पष्ट है काम मनुष्य के मन-बुद्धि को आच्छादित करके राम की ओर जाने ही नहीं देता। गीता के सोलहवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने काम क्रोध, लोभ को ही नरक का द्वार कहा है। तीसरे अध्याय के 36वें श्लोक में अर्जुन ने प्रश्न किया था हे श्रीकृष्ण! फिर यह पुरुष बलात् लगाये हुए के सदृश न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित हुआ पाप
आचरण करता है? अगले ही श्लोक में इसका मुख्य कारण काम को बताया है एकबप्रश्न का उत्तर श्रीकृष्ण ने सात श्लोकों में विस्तार से दिया है और अर्जुन आज्ञा दी है कि ज्ञान-विज्ञान का नाश करने वाले काम को बलपूर्वक मार दे।

काम, अर्थात् मनुष्य की अन्तहीन कामनायें। मनुष्य समाप्त हो जाता है, किन्तु कामनायें कभी समाप्त नहीं होती। आरम्भ में अंग्रेजी भाषा में अपने मित्र थॉमस को धन-संग्रह की कामना का त्याग कर ईश्वर प्राप्ति की सलाह, फिर कामदेव को नारी-सौन्दर्य की आसक्ति को त्याग कर शान्ति प्राप्ति का परामर्श, विश्व-प्रसिद्ध बिल्वमंगल की नारी कामसक्ति त्याग कर सूरदास बनने की कथा, गहन आसक्ति के कारण, चित्रसेन की प्रेत- योनि से मुक्ति की कथा, रामू की धन-संग्रह की लालसा को त्याग कर पुनर्जन्म में निष्काम-कर्म और जनकल्याणकारी कर्म करके अपना जीवन सफल करने की सलाह, पौराणिक कथा में इन्द्र की कामासक्ति का दुष्प्रभाव, गर्भ में बालिका-भ्रूण को समाप्त करने का फल व नारी के क्रय-विक्रय का धंधा – Human Trafficking का घृणित व्यवसाय। सभी काम के दुष्प्रभाव की कहानियों है।

इन सभी विषयों का वर्णन और प्रभु
की प्रेम भक्ति द्वारा प्रभु की गीता जैसे ग्रन्थ द्वारा प्राप्ति। यहां तक कि गीता का थोड़ा-बहुत अध्ययन भी कल्याणकारी है। अंत में सभी चिंताओं को त्याग कर प्रभु की शरणागति द्वारा उनकी प्राप्ति का परामर्श इस पुस्तक का मूल विषय है।

पुस्तक समाप्ति के बाद पुनश्च: द्वारा ध्यान-साधना का परामर्श अत्यंत उपयोगी है।

नोट : वर्तमान समय में प्रत्येक मनुष्य व्यस्त है। इसलिए पूरी पुस्तक को पद़ने का समय निकालना मुश्किल होता है। फिर भी पुस्तक की प्रस्तावना और उपसंहार पद लेने पर पुस्तक की विषय-वस्तु से पाठक अवगत हो जाता है।

योग

अभ्यास योग के द्वारा भगवान में मन लगाना क्या है। इसके लिए दो योग्यताएं होनी चाहिए:

  1. ईश्वर प्राप्ति की उत्कट इच्छा अर्थात् ऐसी इच्छा कि चाहे कुछ भी हो जाए मुझे भगवान की हर हालत में प्राप्ति होनी ही चाहिए।

2 ऐसी कोशिश कि किसी तरह से भगवान में मन लग जाए। इसके लिए निम्न में से किसी एक साधन के द्वारा भगवान में मन लगाने का अभ्यास करना। इसके दो तरीके हैं (उदाहरण द्वारा समझने के लिए इस पुस्तक में लिखी गई अछूत देवी नामक कथा पढ़िए) :

(i) सगुण साकार

(ii) निर्गुण निराकार

(i) सगुण साकार मूर्ति, कोई मानसिक आकार अर्थात् आप मन में भगवान का कोई भी आकार बना लें या कोई तस्वीर जो आपको मिल जाए, और कुछ नहीं तो मिट्टी की मूर्ति अपने आप बना लें और उसको ईश्वर मान लें। यह मान लो ईश्वर कहाँ नहीं है. जो सभी जगह और हर वस्तु में मिल जायेंगे यदि आपकी जबरदस्त इच्छा है तो यो सभी जगह आपको मिल जायेंगे।

(ii) निराकार ब्रह्म की उपासना अर्थात् प्रेमपूर्वक भगवान के नाम का जप, बार-बार नाम का उच्चारण, मानसिक जाए सांस के साथ-साथ जब प्रभु के किसी भी नाम का किसी भी भाषा में उनको बार-बार पुकारना (Name repeation of Supreme power)

(iii) ओ३म् का उच्चारण या भंवरे की तरह इसका गुलजार कर अभ्यास करना।
(iv) स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास के साथ-साथ भगवान के नाम का नित्य-निरन्तर जप करना। जैसे सीस अन्दर ली तो राम-राम, सींस छोड़ी तो राम-राम इस प्रकार किसी एक स्थान पर गर्दन और कमर को सीधी करके किसी दीवार के सहारे या कुर्सी पर बैठकर आँखें बंद करके एकान्त स्थान पर ईश्वर की लगातार उपासना करना। आप अगर किसी और धर्म को मानने वाले हैं तो आपके धर्मानुसार भगवान के नाम का सास के साथ-साथ बार-बार जप करना।

(v) प्राणायाम द्वारा अभ्यास करना

इनमें से किसी भी एक उपाय के द्वारा किसी प्रकार सगुण साकार या निर्गुण निराकार किसी भी प्रकार भगवान की निरन्तर पूजा। असल उपाय यह कि भगवान को पाने की जबरदस्त इच्छा के साथ अपने आपको उनकी शरण में ही समझकर उनको याद करना।

हो सकता है फल प्राप्ति में हो जाए किन्तु आपको ऊब कर या आलस्य और प्रमादवश अपना साधन छोड़ना नहीं चाहिए। चलते-फिरते, कोई काम करते वक्त भगवान में मन लगाए

मुझे अपने अध्यापक के कहे हुए शब्द याद आते : “Knock-knock, the door will be opened ” इन सभी उपायों को हम अभ्यास-योग कहेंगे।
अपने पुनर्जन्म वाले परिवार से इस प्रकार तिरस्कृत किए जाने से रामू का मन क्षोभ से भर गया। अत्यन्त उत्साह से वो अपने पूर्व जन्म के परिवार से मिलने आया था और वो धन जिसके पाने के बाद उसके पूरे परिवार ने मुँह फेर लिया, रामू के दुख से उपजे क्रोध के कारण उसकी शिराओं में रक्त का प्रवाह तीव्र हो गया। उसका मन हुआ कि इस चलती ट्रेन में से कूद कर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर ले। फिर उसे उसको दीक्षा देने वाले महात्मा के शब्द याद आये कि सिद्धि का अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए न करना। गीता ज्ञान के शब्द भी याद आए कि मनुष्य जीवन अत्यन्त मूल्यवान है क्योंकि इसी जीवन में मनुष्य अपने जीवन व्यतीत करके कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग द्वारा अपने जीवन को उन्नत बनाने का प्रयत्न करे। इन विचारों से उसका मन थोड़ा बदला।

ट्रेन में समय बिताने के लिए रामू ने अपने सहयात्री से अखबार पढ़ने के लिए लिया। उस अखबार कई दिनों से शंकराचार्य द्वारा लिखित नामक लेख की श्रृंखला छापी जा रही थी उसमें छपे लेखमाला का उस दिन का शीर्षक था की क्षमता घटने पर सभी उसे छोड़ देते हैं। शीर्षक ने रामू का ध्यान अपनी ओर खींचा और उसने पढ़ना शुरू किया।

शंकराचार्य ने लिखा कि तक तुम्हारे अन्दर धन कमाने और बचाने की शक्ति है तभी तक तुम्हारे आश्रित तुमसे चिपके रहेंगे पीछे जब तुम बूढ़े हो जाओगे और शरीर निर्बल हो जाएगा तब तुम्हारे घर का कोई भी व्यक्ति तुमसे बात भी नहीं करेगा। (गोविन्द को गोविन्द को भजो)
लेख के व्याख्याकार स्वामी चिन्मयानंद ने लिखा है कि जीव के रूप में मनुष्य मूलतः स्वार्थी होता है। साधारणतया वह कुछ नहीं देगा जब तक कुछ पाने की आशा न हो। नहीं के लिए कुछ नहीं यह नियम प्रायः प्रकृति पर भी लागू है। यह नियम सर्वव्यापी है इसलिए सामान्यतः प्रिय एवं निकट सम्बन्धी भी परिवार में कमाने और बचाने वाले सदस्य की अधिक खातिर करते संबंधियों के हर स्तर पर चाहे वह पुरुष और स्त्री हो, पिता और पुत्र हो या भाई और बहन हो – यह देखा गया है। संक्षेप में मनुष्यों के हर तरह के संबंधों केवल कमाने और बचाने वाले का, वे सभी व्यक्ति आदर करते हैं, जो उनकी बचत से कुछ लाभ की आशा रखते हैं। यह बहुत ही लोकप्रिय कहावत है कि पैसा ही प्रतिष्ठा है और पैसे से हर चीज खरीदी जा सकती है। मनुष्य का जीवन चाहे जैसा भी हो, क्षमता और शक्ति को तो समाप्त होना ही है क्योंकि वृद्धावस्था शारीरिक और मानसिक सामर्थ्य को अवश्य क्षीण करेगी।

इस मूल सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए भगवान शंकराचार्य का कहना है कि कोई भी मनुष्य तभी तक दूसरों को प्रिय हो सकता है जब तक उसमें कमाने और बचाने की शक्ति बची है। तभी तक दूसरे लोग उसके धन से लाभ उठा सकते हैं। जब मनुष्य की क्षमताएं घट जाती है, उसका शरीर वृद्ध और निर्बल हो जाता है, तब उसके सभी मित्र और आश्रित उसे छोड़ देते हैं क्योंकि उससे उनका मतलब नहीं निकलता। संसार की यही रीत है।
पहले से ही चेत जाने का अर्थ है, आने वाले समय की तैयारी पहले ही कर लेना। सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले मनुष्यों की स्वाभाविक प्रवृत्ति जानते हुए एक बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जितना हो सके अर्जन करे, अपनी शक्ति के अनुसार दूसरों को दे और यथासंभव दूसरों का स्नेह सहयोग और आदर प्राप्त करे
परन्तु वह उसे जीवन का लक्ष्य न बनाए। वह आंतरिक शक्ति और आत्मपूर्णता भी प्राप्त करे तथा उसकी रक्षा उन सभी खुशामदी टट्टुओं से करे जो उसके चारों ओर
फैले है और और उसके अहंभाव को बढ़ाने की सर्वदा चेष्टा करते हैं ।

अखबार की इस प्रति को रामू ने अपने सहयात्री से आग्रह करके ले लिया। अपने घर की ओर वापिस लौटते समय रामू को अजमेर जंक्शन से ट्रेन बदलने लिए कुछ समय रूकना पड़ा। समय गुजारने के लिए उसने किसी एकान्त स्थान की तलाश की जो उसे आनासागर की बारादरी के किनारे, खामखा के तीन दरवाजे नामक स्थान पर मिली। पहले उसने बजरंगगढ़ पहुँच कर त्रेता-युग में प्रकट हुए श्री नारायण अवतार, श्री राम के अनन्य भक्त और सेवक, बजरंगबली के मन्दिर पर शीश झुकाया उसके उपरान्त आनासागर की बारादरी आ पहुंचा।

यहाँ बैठ कर उसने अखबार को फिर से देखा, लेख के महत्वपूर्ण दर्शन को फिर से पढ़ा। ” इस श्लोक में एक चिंतक को मिथ्याभिमान के विरुद्ध प्रतिपक्ष भावना का आधार प्राप्त होता है। इस पर मनन करके, अपने मन को मिथ्यामूल्यांकन और सुरक्षा की भ्रामक भावनाओं से विमुख करना है और सर्वोच्य ब्रह्म की उपासना में लगाना है। यह अभी और ‘यहाँ किया जा सकता है, युवावस्था में मनुष्य की दक्षता और मानसिक क्षमता जब पूर्णावस्था में रहती है तभी इसका अभ्यास करना चाहिए।”
निःसंदेह हर युवक जीवन में सफलता की खोज करे वह कडी मेहनत करे बाधाओं से जूझे और खतरे का मुकाबला करे हर व्यक्ति धन अर्जित करे बचाए और
दूसरों को यथासंभव देकर अपने समाज और देश की अधिकाधिक सेवा करे परन्तु इसे केवल मन बहलाव का काम मानना चाहिए। जीवन का मुख्य कर्तव्य होना चाहिए आत्मशुद्धि की प्राप्ति और ब्रह्म की उपासना सच्ची प्राप्ति तो अपने वैयक्तिक एवं आंतरिक चिंतन में है, कि अंत में संस्था द्वारा परित्यक्त होने के पूर्व हम स्वयं ही संसारी क्रियाकलापों से अवकाश प्राप्त कर इससे भी स्मृद्धिशाली संसार में प्रवेश करें जहां शांतिपूर्ण चिंतन किया जा सके और आत्म शुद्धि की प्राप्ति हो सके।

Rebirth (part -3)

Continued from part 2..

अब लौटते हैं अपनी पुनर्जन्म की कथा की ओर –

लखमीचन्द्र उर्फ लक्खू जो पुनर्जन्म में रामू बनकर पैदा हुआ अपने पूर्व जन्म का रहस्य जानकर उसने क्या किया। अपने मन में यह कामना लेकर वह कलकत्ता रवाना हुआ कि अपने पूर्व जन्म के परिवार को पाकर वह सब कुछ बताएगा और निश्चित रूप से उसके पुत्र और पत्नी उसको पाकर खुश होंगे और उसके कमाये हुए धन का कुछ हिस्सा पाकर उसके कष्ट के दिन खुशी के रूप में बदल जायेंगे।

लखमीचन्द्र जो कि अब रामू बन चुका था, ने कलकत्ता पहुँच कर ढूंढा और दरवाजा खटखटाया। उस समय रात के लगभग नौ बजे का समय रहा होगा। दरवाजे पर दस्तक की आवाज सुन कर लखमी चन्द्र के बड़े पुत्र ने दरवाजा खोला। रामू बने लखमीचन्द्र ने अपने बड़े पुत्र को उसके नाम से सम्बोधित किया तो वह अचम्भित रह गया। उसने प्रत्युत्तर में पूछा कि आप कौन? रामू ने कोई उत्तर नहीं दिया और छोटे पुत्र का नाम लेकर उसके बारे में पूछा। बड़े पुत्र ने छोटे भाई को आवाज देकर बुलाया, इतनी देर में वह भी आ गया रामू ने उसे स्नेह भरी नजर से देखा, अब रामू ने अपनी पूर्व जन्म की पत्नी का नाम लेकर पूछा कि वे कहाँ हैं। लखमीचन्द्र के बड़े पुत्र ने अचम्भित होकर पूछा कि आप कौन हैं और मेरी माताजी को कैसे जानते हैं। वार्तालाप की आवाज सुनकर लखमीचन्द्र की पत्नी भी उपस्थित हो गई। उसे देखकर रामू को कई गुजरे पल याद आने लगे। वो खामोश नीची निगाहें करके उदास मन से थोड़ी देर शान्त बैठा रहा। लखमीचन्द्र के परिवार के सभी सदस्य आगन्तुक को विस्मय से देख रहे थे क्योंकि अभी रामू ने अपने पूर्व जन्म का परिचय नहीं दिया था। अब रामू बने लखमीचन्द्र ने अपने बड़े पुत्र से दुकान के बारे में जानकारी चाही, जिन व्यापारियों से उसका सदा सम्पर्क रहा उनके बारे में जानकारी चाही। अब उसके पुत्र का धैर्य जाता रहा और वह नाराजगी भरे लहजे में लखमीचन्द्र से पुनर्जन्म में रामू बने लड़के से पूछा कि आप कौन हैं हमारे घर परिवार और धंधे के बारे में इतनी जानकारी कैसे रखते हैं आखिर रामू को इस रहस्य को उजागर करना ही पड़ा कि “मैं ही पिछले जन्म में तुम्हारा पिता लखमीचन्द्र था”, इस रहस्योद्घाटन से सारा परिवार चकित रह गया। रामू ने कहा कि आप थोड़ी देर के लिए अपनी माता जी से मुझे एकांत में बात करने दीजिए। सत्य जानने के लिए लखमीचन्द्र की पत्नी ने सहमति प्रदान कर दी। बातचीत के दौरान कुछ बातें अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में बताई जो बिल्कुल सत्य थीं। अब लखमीचन्द्र के पूरे परिवार को रामू की बात पर पूरा विश्वास हो गया था कि पिछले जन्म में अपनी गरीबी को दूर करने के लिए जिस लगन से मेहनत की उसी कारण वो सफल हो पाया। पर धन संग्रह करने के लोभ के कारण कई मजबूर ग्राहकों का उसने गलत फायदा उठाया और लोभवश कई मजबूर मनुष्यों का धन उसने हड़प लिया था, इसी कारण वो मरकर इस जन्म में पिछले जन्म से भी ज्यादा गरीबी और दुख इस जीवन में भोग रहा है। सारा हाल जानकर उसकी पिछले जन्म की पत्नी को गहरी सहानुभूति हो गई। उसके पुत्रों का व्यवहार भी उसके प्रति थोड़ा नरम हो गया। लेकिन उसके पुत्र ने प्रश्न किया कि जिस अथाह धन की बात रामू कर रहा था वो तो उसे कहीं नहीं मिला। हाँ इतना अवश्य है कि जो धन वो छोड़ गए उससे आराम की जिन्दगी कट रही है रामू ने कहना शुरू किया जब जिन्दगी में मनुष्य को अपने कर्मों के कारण दुख भोगना पड़ता है तभी उसके मन में पश्चाताप की भावना प्रबल होती है। सेनेटोरियम में मरणासन्न स्थिति में जो गीता ज्ञान सुना उसी के कारण उसको पश्चाताप हुआ था लेकिन इससे पहले कि मैं अपनी भूल सुधारता, मृत्यु ने मेरी जीवनलीला समाप्त कर दी। बातचीत में काफी रात बीत चुकी थी किन्तु सबकी आँखों से नींद कोसों दूर थी। थोड़ी देर बाद रामू ने बड़े पुत्र को कहा कि स्टोर रूम में गेती-फावड़ा रखा है, उसे ले आओ। उसने अपने बड़े पुत्र को घर में एक स्थान को चिन्हित करते हुए खोदने के लिए कहा। तीनों जनों ने मिलकर प्रयास किया और वो लोहे का बक्सा खोद कर निकाला जो उसने पिछले जन्म में छुपाया था। बक्सा खोलने पर उसके पूरे परिवार की आँखें आश्चर्य से फटी रह गई। अचानक इतनी धन-सम्पत्ति जो कि सोने के गहने और मूल्यवान हीरे-जवाहरात के रूप में थी, देख पूरे परिवार के मन में लोभ आ गया। लोभ ऐसा अवगुण है जो सारे रिश्ते-नातों को खत्म कर देता है। रामू ने कहना जारी रखा कि इसी धन के कारण उसे पिछले जन्म और इस जन्म में भी उन संचित कर्मों को भोगना पड़ रहा है जो अब प्रारब्ध बन उसके सामने आ रहे हैं। हो सके तो वो उन मजबूरों को लौटा दे। सभी के नाम पुरानी बही में दर्ज हैं।

रामू ने कहना जारी रखा कि वह बहुत-सा धन छोड़कर गया था हो सके तो मुझे थोड़ा सा दे दें, ताकि मेरा वर्तमान जीवन अत्यधिक कष्टों से बच जाए। लखमीचन्द्र के पुत्र ने कहा कि अभी सब विश्राम करें, सुबह इस बारे में विचार किया जाएगा।
सुबह जल्दी उठ कर लखमीचन्द्र का बड़ा पुत्र रामू के लिए टिकट ले आया। टिकट और राह-खर्च देकर रामू से कहा कि अब आप यहाँ से पधारें। मेरे पिता लखमीचन्द्र अब इस दुनिया में नहीं हैं, आपने अगर पिछले जन्म में कुछ पाप करके रुपया कमाया होगा तो उसके बारे में आप भुगतें, हमें इससे कोई सरोकार नहीं है। लखमीचन्द्र के वारिस के नाते यह सारा धन हमारा है यहाँ पधारने के लिए शुक्रिया। खरी-खरी सुनाने के उपरान्त लखमीचन्द्र के पुत्र ने रामू को विदा करके घर का दरवाजा बन्द कर दिया।

(कथा से यह ज्ञान हो जाना चाहिए कि जिन अपनों के लिए आप पाय करके धन कमाते हैं उसका फल आपको अकेले भोगना पड़ेगा)

पाठको धन वह पदार्थ है जिसके लिए लोग सारे रिश्ते-नाते भूल जाते है और वर्तमान जीवन को ही सब कुछ मानकर कामनाओं के कारण लोग बड़े से बड़ा अपराध करने से नहीं चूकते। तो यह मामला फिर पिछले जन्म का था। कर्म करने से पहले मनुष्य को यह जरूर सोचना चाहिए कि ईश्वर के बनाये कर्मविधान से मनुष्य बंधा हुआ है। इस कर्म बंधन से भगवान कृष्ण द्वारा उपदेश किया समय कर्मयोग ही छुड़ा स्कता है। अर्थात् ईश्वर को समर्पित शुभ कर्म जो बिना फल की आशा के किए जाये. यहीं समत्व कर्मयोग है।

कर्मयोग के सम्बन्धित गीता के कुछ श्लोक जो इस प्रसंग में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कहे :

अध्याय 2 श्लोक संख्या 40

इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है। ।40 ।।

व्याख्या: उदाहरणार्थ जैसे खेती करने वाला बीज जमीन में डालकर उसको सींचना छोड़ दे तो वह नष्ट हो जाता है। उसी प्रकार कर्मयोग के आरम्भ का नाश नहीं होता, इसके संस्कार साधक के अंतःकरण में स्थित हो जाते हैं और वे साधक को दूसरे जन्म में जबरदस्ती पुनः साधन में लगा देते है। इसका विनाश नहीं होता। जहाँ कामनायुक्त कर्म होता है वहीं अच्छे-बुरे फल की सम्भावना रहती है, जहाँ कामना का सर्वथा अभाव है उसमें विपरीत फल नहीं होता, जैसे रोग नाश के लिए ली गई दवा के दुष्प्रभाव के जरिये रोग को बढ़ाने वाली भी हो सकती है, उस प्रकार कर्मयोग के साधन का विपरीत परिणाम नहीं होता।
पूर्वजन्म के पाप के कारण विषयभोग का एवं प्रमादी, विषयी और नास्तिक पुरुषों का संग होने से साधन में विघ्न बाधा-रुकावट तो आ सकती है, किन्तु निष्काम कर्म का परिणाम बुरा नहीं होता।

कर्मयोग किसको कहते हैं : शास्त्र अनुसार उत्तम कर्म का नाम कर्म है और समभाव का नाम योग है। फल की इच्छा त्याग कर, ईश्वर समर्पित कर्तव्य कर्म करना ही कर्मयोग है। समभाव से किए हुए युद्ध (सैनिकों के लिए धर्म-युक्त कर्म), कृषि, व्यापार, सेवा आदि छोटे-से-छोटा जीविका के कर्म भी भावपूर्ण होने पर क्षणमात्र में संसार से उद्धार करने वाला बन जाते हैं; क्योंकि कल्याण साधन में कर्म की अपेक्षा भाव की ही प्रधानताहै।
महान भय किसे कहते हैं : जियो को सबसे अधिक भय मृत्यु से होता है।

अनन्तकाल तक बार-बार जन्मते और मरते रहना ही महान भय है। इस जन्म-मृत्यु रूप महान भय को भगवान ने मृत्यु रूप संसार सागर के नाम से कहा है। (गीता अध्याय 12 श्लोक ) जैसे समुद्र में अनन्त लहरे होती हैं उसी प्रकार इस संसार समुद्र में भी जन्म-मृत्यु की अनन्त लहरें उठती और शांत होती रहती है। समुद्र की लहरे तो चाहे गिन भी ली जा सकती हो, पर जब तक परमात्मा के तत्त्व का यथार्थ ज्ञान ही होता तब तक कितनी बार मरना पड़ेगा इसकी गणना कोई भी नहीं कर सकता। ऐसे इस मृत्यु रूप संसार समुद्र से पार कर देना – सदा के लिए जन्म-मृत्यु से छुड़ाकर इस प्रपंच से सर्वथा अतीत सच्चिदानन्दं ब्रह्म से मिला देना ही महान भय से रक्षा करना है।

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मा के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।

(भगवतगीता श्लोक 2/47) भगवत गीता के अध्याय छः श्लोक 3 में अर्जुन द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में जिस अभ्यास और वैराग्य का वर्णन किया गया और उसका संदर्भ कई बार आने के कारण उसको बार-बार उल्लेख किया जाएगा अभी पिछले श्लोक में संसार सागर से पार उतरने के बारे अध्याय 12 श्लोक 7 का वर्णन आया है. इस सम्बन्ध में अध्याय 12 के श्लोक संख्या 0 से 9 तक का वर्णन किया जा रहा है।
अध्याय 12 श्लोक संख्या 6

जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके मुझ रावण रूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति योग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं। ।6।।

व्याख्या भगवान पर निर्भर होकर, निर्भय और निर्विकार रहकर उनके भेजे हुए सभी दुःखो को झेलते हुए परमात्मा को अपना परम प्रिय और सब प्रकार से शरण लेने योग्य समझ कर अपने आपको उन्हें समर्पित कर देना ही उनके परायण होना है। कर्मों के करने में अपने आपको पराधीन समझ कर उनके संकेत के अनुसार कठपुतली की भाँति समस्त कर्म करते रहना; उन कर्मों में न तो ममता और आसक्ति रखना और न उनके फल से किसी प्रकार का सम्बन्ध रखना और सदा यह भाव रखना कि परमात्मा मुझसे जो कर्म करवा रहे हैं मैं कर रहा है, अत्यन्त श्रद्धा के साथ भगवान का चिन्तन करते ए उनकी उपासना करना, उनके नामों का उच्चारण और लीला का श्रवण और नाम-स्मरण करना ही भक्ति योग के द्वारा चिन्तन करते हुए उनकी उपासना करना है। अध्याय 12 श्लोक संख्या 7

है अर्जुन! उन मुझ में चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का में शीघ्र ही मृत्युरूप संसार समुद्र से अन्हार करने वाला होता हूँ।7।।

व्याख्या: जो जीव मन-बुद्धि को भगवान में सदैव लगाए रख कर निरन्तर उनकी उपासना में लगे रहते है, उन भक्तों को भगवान तत्काल ही जन्म-मृत्यु से सदा के लिए छोड़कर यहीं अपनी प्राप्ति करा देते है अथवा मरने के बाद अपने परमधाम में ले जाते हैं। यही भगवान का अपने उपर्युक्त भक्त को मृत्यु रूप संसार से पार कर देना है। अध्याय 12 श्लोक संख्या 8

मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा इसके उपरान्त तू मुझ में निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।18।।

जो सम्पूर्ण चराचर संसार को व्याप्त करके सबके हृदय में स्थित है और जो दयालुता, सर्वज्ञता, सुशीलता तथा सुहृदयता आदि अनन्त गुणों के सागर हैं – उन परम दिव्य, प्रेममय और आनन्दमय, सर्वशक्तिमान सर्वोत्तम, शरण लेने के योग्य परमेश्वर के गुण, प्रभाव और लीला के तत्त्व तथा रहस्य को भलीभांति समझ कर उनका सदा सर्वदा अटल निश्चय रखना – यही बुद्धि को भगवान में लगाना है। तथा इस प्रकार अपने परम प्रेमास्पद पुरुषोत्तम भगवान के अतिरिक्त अन्य समस्त विषयों से आसक्ति को सर्वथा हटाकर मन को केवल उन्हीं में तन्मय कर देना और नित्य-निरन्तर उपर्युक्त प्रकार से उनका चिन्तन करते रहना – यही मन को भगवान में लगाना है। इस प्रकार जो अपने मन बुद्धि को भगवान में लगा देता है, वह शीघ्र ही भगवान को प्राप्त हो जाता है।

भगवान में मन-बुद्धि लगाने पर यदि मनुष्य को निश्चय भगवान की प्राप्ति हो जाती है तो सभी ऐसा क्यों नहीं करते?

परमात्मा के गुण, प्रभाव और लीला के तत्व और रहस्य को न जानने के कारण भगवान में श्रद्धा प्रेम नहीं होता और अज्ञान जनित आसक्ति के कारण सांसारिक विषयों का चिन्तन होता रहता है संसार में अधिकांश लोगों की यही स्थिति है, इसी से सब लोग भगवान में मन-बुद्धि नहीं लगाते।

जिन लोगों की सांसारिक भोग-विलास में डूबे रहने और उनका ही निरन्तर चिन्तन की बुरी आदत है इसलिए वो भगवान के महान गुणों, उनका प्रभाव लीला तत्त्व के रहस्य को नहीं जानते हैं किन्तु बुरे चिन्तन और भोग विलास और स्वार्थबुद्धि और येन-केन-प्रकारेण धन के संग्रह और काम को ही परम प्राप्त वस्तु मान कर भगवान की ओर ध्यान न देना, भोग, आलस्य और प्रमाद के कारण परमात्म-प्रेम का मार्ग न समझना ही इसका मूल कारण है।

सम्बन्ध यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि यदि मैं उपर्युक्त प्रकार से भगवान में मन-बुद्धि न लगा सके तो मुझे क्या करना चाहिए। श्लोक संख्या 9 अध्याय 12 (अति महत्वपूर्ण )

यदि तू मन को मुझ में अचल, स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो है अर्जुन! अभ्यास रूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर। 19।।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को निमित्त बनाकर सारे संसार के मनुष्यों के लिए उपदेश कर रहे हैं क्योंकि इस संसार में सभी की प्रकृति एक सी नहीं है। अतः सभी साधक भगवान की प्राप्ति करने के लिए अलग अलग साधनों को उचित मानते हैं। यहाँ पिछले श्लोक के अनुसार भगवान कह रहे हैं कि अर्जुन तू मुझमें मन और बुद्धि को अचल स्थापन करने में समर्थ नहीं है तो अभ्यास योग के द्वारा मेरी प्राप्ति की इच्छा कर।

The above extract is from the book “काम और राम” written by “Devraj Pathania”

Rebirth ( part -2 )

  1. पुनर्जन्म को जानने की सिद्धि

एक योग सिद्धि होती है जिसे कहते

संस्कारसाक्षात्करणातू पूर्वजातिज्ञानम। शब्दार्थ – संस्कृत-साक्षात-करणात = संस्कार साक्षात् करने से ;पूर्वजातीज्ञानम् = पूर्वजन्म का ज्ञान होता है।

अन्वयार्थ – संस्कार को साक्षात् करने से पूर्वजन्म का ज्ञान होता है।

उन संतों में एक संत सिद्ध योगी थे जो इस सिद्धि के जानकार थे। उसे संत ने कृपा करके रामू को इस सिद्धि की दीक्षा प्रदान की और बचन ले लिया कि रामू इस

सिद्धि का अनुचित लाभ नहीं उठायेगा।

संत अपने अगले पड़ाव की ओर चले गए और रामू ने दीक्षा के मुताबिक साधना आरम्भ की और एक निश्चित काल के उपरान्त रामू की साधना सफल हुई। उसने जो कुछ जाना यो निम्न प्रकार से है

पिछले जन्म में वो इसी मारवाड़ इलाके के एक कस्बे का रहने वाला था। तब भी वह एक गरीब खानदान से था, नाम था लखमी चंद। साधारण बोलचाल में उसे सभी लक्खू के नाम से बुलाते थे। मारवाड़ राजस्थान, के कई व्यापारी कलका राहर में कपड़ा मार्केट में नामी सेठ बन गए थे लक्खू तो अत्यन्त गरीब था लकिन फिर भी वो कपड़ा मार्केट के मारवाड़ी समुदाय में जल सेवा का कार्य करने लगा इस कारण वो मारवाड़ी व्यापारियों में काफी लोकप्रिय था। लक्खू अपने घर से पानी पिलाने वाला एक बर्तन झारी अपने साथ लाया था। कपड़ा मार्केट में उसने निश्चित स्थान पर दो घड़े रख रखे थे। रोज सुबह वो इन दोनों घरों को अच्छी तरह से साफ करके इनमें शुद्ध जल भर लेता था और उन मटकों को टाट की बोरी से लपेट देता था और समय-समय पर इनको जल से गीला करके रखता था इसलिए मटकों का पानी हमेशा ठण्डा बना रहता था। नियमित तौर पर लक्खू सारे बाजार में घूम-घूमकर सबको ठण्डा पानी पिलाता था। इस कारण लक्खा सबका प्रिय बन गया। लक्खू रोज उस ठण्डे पानी में केवड़े का अर्क डाल देता था। इससे पानी ठण्डा होने के साथ केवडे की खुशबू लिए रहता। तो जो भी पीता, तृप्त हो जाता। कलकत्ते के पसीने वाली गर्मी में यह पानी अमृत समान लगने लगा। लक्खू सबका प्रिय था अतः मार्केट वाले सारे व्यापारी खुश होकर लक्खू को कुछ न कुछ धन जरूर दिया करते थे। अब लक्खू का जीवन आराम से कटने लगा। दानी मार्केट व्यापारियों के धन से धीरे-धीरे लक्खू की आर्थिक स्थिति बेहतर हो गई। मार्केट में कपड़े की गाँठों का काफी व्यापार होता था कुछ जमा पूँजी जो लक्खू के पास जमा हो गई थी। लक्खू ने जुगाड़ लगाकर एक व्यापारी से कपड़े की एक गाँठ खरीदी और उसे उसी व्यापारी के पास जमा कर दी। दैवयोग से कपड़ा बाजार में एकदम से तेजी आ गई, अत लक्खू को कपड़े की गाँठ से दुगुना फायदा हो गया। अब लक्खू ने उसी व्यापारी की फड़ पर एक छोटा सा कोना, सेठ से मांग लिया और थोड़ा-थोड़ा सामान खरीद कर रखने लगा और कपड़े के व्यापार के सभी तौर-तरीके सीखने लगा। कुछ जमा पूंजी और इकट्ठा होने पर लक्यू ने एक तख्त उसी दुकान के फड़ पर रख लिया, लेकिन जल सेवा का अपना कार्य पहले की तरह ही जारी रखा। लक्खू सभी व्यापारियों का प्रिय बन गया। मधुरभाषी और मृदुल व्यवहारी होने के नाते सभी व्यापारियों से उसके अच्छे सम्बन्ध बन गए। व्यापारी समाज में नकद पैसे की हमेशा किल्लत बनी रहती है। अतः कपड़े के कार्य को कम करके लक्खा अपनी जमा पूंजी रोज शाम के वायदे पर देने लगा। सुबह दिया गया रूपया लक्खा को शाम को कुछ लाभ सहित मिलने लगा। अब लक्खू नकदी का सेठ बन गया, जिस व्यापारी को भी रकम की जरूरत होती वो लक्खू से लेने लगा। धीरे-धीरे लक्खू का नकद रूपये के साथ ब्याज की रकम का धंधा चल निकला। अब लक्खू की जगह लखमी चन्द्र सेठ बन गया बाजार में उसने अपनी एक स्थाई गद्दी बना ली। धीरे-धीरे लखमी चन्द्र सेठ का कारोबार बढ़ने लगा। अब लखमीचन्द्र ने अन्य बाजारों में भी अपनी पैंठ बना ली। रूपया अब खूब आने लगा। मारवाड़ी समाज में ही लखमीचन्द्र ने एक बड़ा सा मकान खरीद लिया। उसी समाज में उसने संभ्रांत घर की महिला से विवाह कर लिया। सेठ लख्मीचंद अब घर परिवार वाला हो गया। कपड़ा मार्केट के अलावा अन्य बाजारों में भी उसने ठण्डे पानी के कूलर लगवा दिये। धीरे-धीरे लखमीचन्द्र सोने के गहने व अन्य सामान रहन रखकर रूपया ब्याज पर देने लगा। समय पर पैसा न चुकाने की स्थिति में वह सोना व अन्य प्रोपर्टी लखमीचन्द्र की हो जाती। पैसे में एक बुराई भी है जब मनुष्य को पैसा संग्रह करने के साथ-साथ गिनने भी लग जाता है तब लालच अत्यधिक बढ़ने लगता है। लखमीचन्द्र को लगने लगा कब रुपये की कमी पड़ जाए अतः उसने मजबूत सा बक्सा खरीद कर अपने पास के सोने-जवाहरात भरकर घर में एक उचित स्थान देख कर गाढ़ दिया। वक्त बीता और लखमीचन्द्र का परिवार बढ़ गया। बैंक-बैलेंस तो लखमीचन्द्र का काफी था ही। उसकी जिन्दगी शान-शौकत से बीतने लगी। ऐसा कभी नहीं होता कि सारी जिन्दगी मनुष्य के दिन अच्छे ही रहें।

वक्त बीता और लखमीचन्द्र को टी.बी. की गम्भीर बीमारी ने पकड़ लिया यह वह समय था जब टी.बी. लाइलाज समझी जाती थी परिवार में उसके दो बेटों और पत्नी ने उचित समय समझकर शहर के बाहरी इलाके के सेनेटोरियम में लखमीचन्द्र दाखिल करा दिया। लखमीचन्द्र जिस सेनेटोरियम में दाखिल था उसके पास ही एक मन्दिर था।

उस मन्दिर के लाउडस्पीकर से, मन्दिर में चल रहे श्री मद्भगवतगीता के प्रवचन का कार्यक्रम चल रहा था। उस दिन गीता के पन्द्रहवें अध्याय के सातवें श्लोक की किसी विद्वान द्वारा व्याख्या की जा रही थी।

  1. मृत्यु के समय गीता के दो श्लोक भी जीव के कल्याण में सहायक हो सकते हैं। भगवद गीता अध्याय 15 श्लोक संख्या 117||

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृति स्थानि कर्षति। 7।।

अर्थात् इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है।।17।।

व्याख्या : इस मनुष्य देह में जीव बना हुआ यह मनुष्य मेरा ही सनातन अंश है। सनातन का तात्पर्य है, जो सदा था, सदा है,और सदा रहेगा। परमात्मा कहते है जैसे मैं सनातन हूँ वैसे ही यह जीव आत्मा भी सनातन है। इसलिए जो धर्म इस सनातन आत्मा का अध्ययन करता है वह भी सनातन धर्म कहलाता है।

इन प्रकृति में स्थित मन के अलावा यह पांचों ज्ञान इन्द्रियों इस प्रकार है क्षोत्र, स्पर्श, दृश्य, स्वाद और घ्राण। यथा : कान, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका और मन।

वही इस प्रकृति में स्थित इनका आकर्षण करता है। जीवात्मा इन मन सहित छः इन्द्रियों को आकर्षित करता है।

जब जीवात्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाता है तब पहले शरीर में से मन सहित इन्द्रियों को आकर्षित करके साथ ले जाता है, यही इस जीवात्मा का मन सहित इन्द्रियों को आकर्षित करना है। विषयों को अनुभव करने में मन और पाँचों ज्ञानन्द्रियों की प्रधानता होने से इन छहों को आकर्षित करना बतलाया गया है। यहाँ ‘मन’ शब्द अन्तःकरण का वाचक है, अतः बुद्धि एवं अहंकार उसी में आ जाता है।और जीवात्मा जब मन सहित इन्द्रियों को आकर्षित करता है, तब प्राणों के द्वारा ही आकर्षित करता है। अतः पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर मुत्रेन्द्रिय अर्थात् उपस्थ और गुदा) और पोच प्राण (प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान) को भी इन्हीं के साथ समझ लेना चाहिए।
सम्बन्ध : यह जीव आत्मा मन सहित छः इन्द्रियों को किस समय कित्त प्रकार और किसलिए आकर्षित करता है, इस सम्बन्ध में अगला श्लोक: भगवद गीता अध्याय 15 श्लोक संख्या आठ

वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ग्रहण करके ले जाता है, वैसे देहादि का स्वामी जीव आत्मा जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इस मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है। I8 ।

व्याख्या : स्थूल शरीर इत्र से भरा हुआ रूई का फोहे के समान है। इसमें सत्तरह तत्वों वाला कारण और सूक्ष्म शरीर इत्र की सुगन्ध की तरह मौजूद है। मृत्यु के समय बहती हुई हवा (अर्थात् आत्मा) उस सूक्ष्म शरीर को अपने साथ ले जाएगी और उसके कर्मानुसार उस गर्भ में स्थापित कर देगी जो उसे मिलने वाला है और खाली रूई के लोहे की तरह स्थूल शरीर रह जाएगा जिसे या तो अग्नि को समर्पित कर दिया जाएगा या जमीन में दफना दिया जाएगा।

  1. जीवन के अन्त में उत्पन्न अपराध बोध कल्याणकारक होता है
    यह सत्य है कि तृष्णा के कीचड़ में फंसा हुआ मनुष्य तभी चेतता है जब उसे दुख का सामना करना पड़ता है। दुःख से उत्पन्न वैराग्य मनुष्य को अध्यात्म की तरफ आकर्षित करता है। अध्यात्म से उत्पन्न ज्ञान का शुद्ध जल तृष्णा के कीचड़ से मैला हुआ मनुष्य का अंतःकरण साफ करने का काम करता है। टी.बी. से मरणासन्न स्थिति में पहुँचा लखमीचन्द्र पश्चाताप की अग्नि से जलने लगा। धन संग्रह करने की कामना में उसने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि जो जरूरतमंद अपने जवाहरात और गहने उसके पास जमा कर जाते थे और फिर वापस छोड़ा नहीं पाते थे वे सभी जरूरतमंद मजबूरी के कारण ऐसा करते थे। उसने जो धन संग्रह किया वो मजबूर मनुष्यों का धन था जिसे उसने हड़प लिया। पश्चाताप मनुष्य के मन का मैल धो देता है। लखमीचन्द्र के बहते आँसू यही काम कर रहे थे। उसने हाथ जोड़ कर मन ही मन प्रार्थना की प्रभु उसे एक मौका मिल जाए तो उन सब मजबूर मनुष्यों के गहने वापिस लौटा दे। लेकिन लखमीचन्द्र को मिले शरीर का समय समाप्त हो चुका था।

यहाँ एक जानने योग्य प्रश्न सभी जिज्ञासु के मन में पैदा होता होगा कि पुनर्जन्म में जीवात्मा को एक शरीर को छोड़ कर दूसरे स्थूल शरीर की प्राप्ति आसानी से हो जाती या उसमें कुछ कष्ट भी होता है। इस जिज्ञासा हेतु विभिन्न विद्वानों और इस विषय पर उस काल की परिस्थिति के बारे में विभिन्न शास्त्रों के बारे में वर्णित ज्ञान इस प्रकार है।

विभिन्न जानकारों का मत है कि मृत्यु के समय जीव को हजार बिच्छुओं के काटने के समान का कष्ट होता है। पतंजलि योग शास्त्र के षड्दर्शन समन्वय के न्याय-दर्शन के अनुसार इसको प्रेतभाव के नाम से जाना जाता है और पार्थिव शरीर के अन्तिम संस्कार को प्रेतक्रिया के नाम से जाना जाता है।

एक अन्य महापुरुष जिन्होंने गीता पर साधक संजीवनी नामक ग्रन्थ लिखा है, का मत है कि जो मनुष्य अन्तकाल के समय पर स्वयं ईश्वर से प्रार्थना करता हुआ अपनी स्वेच्छा से शरीर त्यागने का संकल्प करता है उसको कोई कष्ट नहीं होता किन्तु जो मरना नहीं चाहता उसको भयानक कष्ट का सामना करना पड़ता है क्योंकि मरना चाहता नहीं और चूँकि उसकी आयु, जो परमात्मा ने उसे बख्शी थी उसका समय खत्म हो चुका अतः उससे स्थूल देह छुड़वाई जाती है। इस विषय पर अर्जुन का एक प्रश्न भगवान कृष्ण से पूछा गया था उसका वर्णन अध्याय छः श्लोक संख्या 37 में है।
अर्जुन बोले – हे श्री कृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है,इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात् भगवत साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है। 37 ।।

हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भांति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?। ।38।। हे श्रीकृष्ण! मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं, क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना सम्भव
नहीं।।39।।

व्याख्या : इस श्लोक की व्याख्या करते हुए श्री जयदयाल गोयन्दका जी लिखते हैं कि अर्जुन यहाँ मृत्यु के बाद की गति जानना चाहते हैं यह एक ऐसा रहस्य है, जिसको बुद्धि और तर्क के बल पर कोई नहीं जान सकता। इसको सर्वत्र विचरण करने की सामर्थ्य रखने वाले देवता और ऋषि- मुनि भी किसी अंश तक जान सकते हैं । (पाठको सभी शास्त्रों में माना गया है कि यह मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष कारण है और इसके सम्बन्ध में जो-जो साधन मनुष्य को करने चाहिए उनके बारे में इस लेख में बाद में साधना के द्वारा जो कुछ लिखा जाए उसको ध्यान से समझ कर उसके अनुसार व्यवहार करके इस जीवन का परम लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास किया जाए।)

To be continued…

( the above extract is from the book “काम और राम” written by “Devraj Pathania” )

Rebirth

An interesting story of rebirth is following from the book Kama & Ram’ based on Karm Vidhan of ‘Gita-Gyaan ‘.

कर्म विधान : कर्म विधान के अनुसार संसार के सभी मनुष्य कर्म विधान के अन्तर्गत ही

हैं। कर्म का विभाजन मोटे तौर पर तीन प्रकार से है :

संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म, क्रियामाण कर्म

जो कर्म हम वर्तमान समय में कर रहे हैं इसको क्रियामाण कर्म कहेंगे जो विधाता द्वारा नोट किए जा रहे हैं।

जो परिस्थितियों हमारे सम्मुख सुख-दुख बनकर आ रही हैं वह प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। इनको भुगत कर हम पिछले कर्मों का हिसाब पूरा कर रहे हैं । तीसरे प्रकार के संचित कर्म हैं, ये वे कर्म हैं जो अभी संचित हैं और जो प्रारब्ध

कर्म बन कर भविष्य में हमारे सम्मुख आयेंगे। कर्मविधान का सारांश यह है कि हर कर्म का फल होता है। हमारे द्वारा जो भी कर्म होता है उसका फल हमारा पीछा करता है जब तक हम स्वयं भोग कर समाप्त नहीं करेंगे।

क्या इस कर्म-बन्धन से छूटने का उपाय भी है? श्रीकृष्ण ने इसके बारे में बताया कि जो भी कर्म बिना फल की कामना के किया जाता है, इस प्रकार का कर्म फल-भोग उत्पन्न नहीं करता। इसी प्रकार के कर्म को ‘निष्काम कर्म’ कहा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश है कि ऐ मनुष्यों, कर्म करो लेकिन फल की कामना न करो। कहने का तात्पर्य यह है कि ‘कामना’ अथवा काम दुख का कारण बनता है।

9. कथा के द्वारा पुनर्जन्म को समझना

पाठकों आप इन कथाओं को ध्यानपूर्वक पढ़ें इन सबका सम्मान हमारे विषय “काम और राम” को जानने और समझने में सहायता करेंगे (राजस्थान) पाली मारवाड़ के सूखे में रहने वाले एक कुम्हार के घर जन्मे एक बालक की कथा है। कुम्हारों का कार्य होता है मिट्टी से नाना प्रकार के बर्तन, खिलौने इत्यादि बनाना। ज्यादातर गर्मी ऋतु में इनके द्वारा पानी रखने के घड़े बनाना, जो कि सीजन में ही ज्यादातर चलता है। घर में बूढ़े माता-पिता और एक मिट्टी की कच्ची ईटों से बना घर। गरीबी का माहौल इस बालक को कष्ट देता ही रहता था।

एक बार उसके करे में कुछ महात्मा पधारे जिन्होंने एक सप्ताह तक गीता प्रवचन का कार्यक्रम रखा। इस बालक ने इस कार्यक्रम में तन-मन से साथ दिया। इन सन्तों की जी-जान से सेवा करना और उनके प्रवचन को ध्यान से सुनना जारी रखा। प्रवचन के दौरान कर्म विधान की विस्तृत चर्चा की गई और इस विचार को प्रस्तुत किया कि पहले कर्म अनुसार मनुष्य का प्रारब्ध बनता है फिर उसको जन्म मिलता है जो भी मनुष्य भोगता है वो उसी के कर्मों का फल होता है।” आत्मा अमर है, शरीर नश्वर है। पंचतत्वों से बना हुआ यह स्थूल शरीर एक प्रकार से आत्मा के वस्त्र है, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार ये आत्मा रथूल शरीर के पुराने होने पर उसे त्याग कर नया स्थूल शरीर धारण करती रहती है।” (श्रीमद् भगवत गीता अध्याय दो श्लोक संख्या 22)

श्रीमद्भागवत गीता अध्याय दो श्लोक संख्या । लड़के के इस जीवन का नाम रामू है। रामू महात्माओं के प्रवचन ध्यान से सुन रहा था। प्रवचन में आगे इस तथ्य को भी उजागर किया गया कि ये कोई आवश्यक नहीं है कि मनुष्य को हर जीवन में मनुष्य शरीर ही मिले। मनुष्य जीवन तो अत्यन्त दुर्लभ है और यह उसको परमात्मा की कृपा से ही मिलता है और मिलता भी इसलिए है कि इस जीवन को प्राप्त कर मनुष्य साधन करके परमात्मा का परमधाम प्राप्त कर ले ताकि फिर उसे इस संसार रूपी बीहड़ वन में धक्के न खाने पड़ें। इसे ऐसा भी मान सकते हैं कि यह भवसागर है जिसमें मनुष्य को शरीर रूपी जहाज मिल गया है जिस पर सवार होकर इस भयंकर संसार सागर से पार हो जाए।

गीता प्रवचन का कार्यक्रम समाप्ति पर था और रामू के मन में एक विचार तूफान की तरह चल पड़ा। मैं जो इस जीवन में इतने कष्ट भोग रहा हूँ, घोर दरिद्रता का जीवन, मुझे किन पाप कर्मों के परिणाम के रूप में मिला है। मैं इस गुत्थी को कैसे सुलझाऊँ, कैसे जाने कि मैंने पिछले जन्मों में कौन-से कुकर्म किए थे। बहुत सोचने के बाद अपने इस प्रश्न को लेकर एक दिन रामू उन संतों के सम्मुख उपस्थित हुआ। संत राम की सेवा से अत्यन्त प्रसन्न थे, लेकिन इस जिज्ञासा ने उनको उलझन में डाल दिया कि इसके प्रश्न को कैसे सुलझाएं।………

to be continued tomorrow on same platform……..